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________________ १०८२ द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरुलघु नहीं है किन्तु अगुरुलघु है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है? उ. गौतम ! अगुरुलघुद्रव्यों की अपेक्षा अगुरुलघु है। उ. गोयमा ! नो गरुयाइं, नो लहुयाई, नो गरुयलहुयाई, अगरुयलयाई। प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ? उ. गोयमा ! अगुरुयलहुय दव्वाइं पडुच्च अगुरुयलहुयाई। -विया. स. १, उ.९, सु.९ ६. जीवाणं विभत्तिभावं परिणमन हेउ परूवणंप. कम्मओ णं भंते ! किं जीचे विभत्तिभावं परिणमइ, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? कम्मओ णं जए किं विभत्तिभावं परिणमइ, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? उ. हंता, गोयमा ! कम्मओ णं जीवे जए विभत्तिभावं परिणमइ, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ। -विया.स.१२, उ.५,सु.३७ ७. कम्मपयडिमूलभेया प. कइणं भंते ! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ,तं जहा १. नाणावरणिज्ज, २. दरिसणावरणिज्ज, ३. वेदणिज्जं, ४. मोहणिज्जं, ५. आउयं, ६. णाम, ७. गोयं, ८. अंतराइयं -पण्ण. प.२३, उ.१,सु. १६६५ चउवीसदंडएसु अट्ठण्डं कम्म पगडीणं परवर्णप. दं.१.णेरइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा १.नाणावरणिज्जंजाव ८.अंतराइयं। दं.२२४ एवं जाव वेमाणियाणार -पण्ण.प. २३, उ.१, सु.१६६६ ९. अट्ठकम्माणं परप्पर सहभावोप. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्ज, जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं? ६. जीवों का विभक्तिभाव परिणमन के हेतु का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव कर्म से (मनुष्य-तिर्यञ्च आदि) विविध रूपों में परिणत होता है या कर्म के बिना परिणत होता है ? क्या जगत् (जीव समूह) कर्म से विविध रूपों में परिणत होता है या कर्म के बिना परिणत होता है। उ. हां, गौतम ! कर्म से जीव और जगत् विविध रूपों में परिणत होता है, किन्तु कर्म के बिना विविध रूपों में परिणत नहीं होता है। ७. कर्मप्रकृतियों के मूल भेद प्र. भंते ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? उ. गौतम ! (मूल) कर्म प्रकृतियां आठ कही गई हैं, यथा १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय, ८. चौबीस दंडकों में आठ कर्म प्रकृतियों का प्ररूपण प्र. दं.१. भंते ! नैरयिकों में कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियां कही गई हैं, यथा १. ज्ञानावरणीय यावत् २. अंतराय। द.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों तक आठ कर्म प्रकृतियां हैं। उ. गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जं तस्स दंसणावरणिज्जं नियमा अस्थि, जस्स णं दरिसणावरणिज्ज तस्स वि नाणावरणिज्ज नियमा अत्थि। ९. आठ कर्मों का परस्पर सहभावप्र. भंते ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके दर्शनावरणीय कर्म भी है और जिस जीव के दर्शनावरणीय कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म भी है? उ. हाँ, गौतम ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके नियमतः दर्शनावरणीय कर्म है और जिस जीव के दर्शनावरणीय कर्म है, उसके नियमतः ज्ञानावरणीय कर्म भी है। प्र. भंते ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके वेदनीय कर्म भी है और जिस जीव के वेदनीय कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म भी है? प. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्ज तस्स वेयणिज्ज, जस्स वेयणिज्जं तस्स नाणावरणिज्ज? १. (क) पण्ण.प.२३, उ.२,सु.१६८७ (ख) पण्ण.प.२४,सु. १७५४,(१) (ग) पण्ण.प.२५,सु. १७६९,(१) (घ) पण्ण.प.२६,सु.१७७५,(१) (ङ) पण्ण.प.२७,सु. १७८७,(१) (च) उत्त.अ.३३,गा.२-३ (छ) विया.स.६,उ.३,सु.१० (ज) विया.स.८,उ.१०,सु.३१ (झ) विया.स.८, उ.८, सु.२३ (क) विया.स.८,उ.१०,सु.३२ (ख) विया.स.१६, उ.३,सु.२-३ (ग) पण्ण.प.२४,सु.१७५४,(२) (घ) पण्ण.प.२५, सु. १७६९,(२) (ङ) पण्ण, प.२६,सु. १७७५.(२) (च) पण्ण.प.२७,सु.१७८७,(२)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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