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________________ १०२४ दसण-चरित्तमोहस्स पंजरमिव करेंति अन्नोऽन्नं सेवमाणा। -पण्ह. आ.४, सु.८२ ४६. चक्कवट्टिस्स भोगाभिलासा भुज्जो असुर-सुर-तिरिय-मणुअ-भोग-रइ-विहर-संपउत्ता य चक्कवट्टी सुर-नरवइ सक्कया सुरवरुव्व देवलोए, भरह - णग-णगर -णिगम-जणवय-पुरवर-दोणमुह-खेडकब्बड-मडंब-संबाह-पट्टणसहस्समंडियं थिमियमेयणीयं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुह, नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसभा मरुयवसभकप्पा अब्भहियं रायतेयलच्छीए दिप्पमाणा सोमा रायवंसतिलका। रवि-ससि-संखवर-चक्क-सोत्थिय-पडाग-जव-मच्छ-कुम्मरहवर-भग-भवण-विमाण-तुरय-तोरण-गोपुर-मणि-रयणनंदियावत्त-मुसल-णंगल-सुरइयवरकप्परूक्ख मिगवइभद्दासणं-सुरुचि-थूभ वरमउड-सरियं-कुंडल-कुंजरवरवसभ-दीव-मंदर गरुल-ज्झय-इंदकेउ-दप्पण-अट्ठावयचाव-बाण-नक्खत्त-मेह-मेहल-वीणा-जुग-छत्त-दाम-दामिणीकमंडलु-कमल-घंटा - वरपोत-सूइ - सागर कुमुदागर - मगरहार- गागर-नेउर-णग-णगरवइर-किन्नर-मयूर-वररायहंससारस-चकोर चक्कवागमिहूण-चामर-खेडग-पव्वीसगविपंचि-वरतालियंट-सिरियाभिसेय मेइणि खग्गंकुसविमलकलस-भिंगार-बद्ध माणग-पसत्थ-उत्तमविभत्तवरपुरिस-लक्खणधरा। द्रव्यानुयोग-(२) अब्रह्म (मैथुन) का सेवन करते हुए अपनी आत्मा को दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म के पिंजरे में डालते हैं अर्थात् अपने आप को मोहनीय कर्म के बन्धन से ग्रस्त करते हैं। ४६. चक्रवर्ती की भोगाभिलाषा इसके अतिरिक्त असुरों, सुरों, तिर्यञ्चों और मनुष्यों सम्बन्धी भोगों में रतिपूर्वक विविध प्रकार की कामक्रीड़ाओं में प्रवृत्त, सुरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा सम्मानित, देवलोक में देवेन्द्र समान तथा भरत क्षेत्र में सहस्रों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों श्रेष्ठ नगरों, द्रोणमुखों (जहां जल और स्थलमार्ग-दोनों से जाया जा सके ऐसे स्थानों), खेटों-(धूल के प्राकार वाली बस्तियों) कर्बटों-कस्बों, मंडबों-(जिन के आस-पास दूर तक कोई बस्ती न हो ऐसे स्थानों) संबाहों (छावनियों) पत्तनों-(व्यापार प्रधान नगरियों) से सुशोभित एवं सुरक्षित होने के कारण स्थिर लोगों के निवास योग्य एकच्छत्र (एक के आधिपत्य) वाले एवं समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करने वाले, मनुष्यों में सिंह के समान शूरवीर, नरपति, नरेन्द्र-मनुष्यों में सर्वाधिक ऐश्वर्यशाली नर-वृषभ (स्वीकार किये उत्तरदायित्व को निभाने में समर्थ) नाग यक्ष आदि देवों से भी सामर्थ्यवान्, वृषभ के समान सामर्थ्यवान्, अत्यधिक राज-तेज रूपी लक्ष्मी वैभव से दैदीप्यमान सान्त एवं नीरोग राजवंशों में तिलक के समान श्रेष्ठ हैं। जो सूर्य, चन्द्र, शंख, चक्र, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कछुवा, उत्तम रथ, भग, भवन, विमान, अश्व, तोरण, नगरद्वार, मणि रत्न नंदावर्त स्वस्तिक, मूसल, हल, सुन्दर कल्पवृक्ष, सिंह की आकृति वाला भद्रासन, सुरुचि (आभूषण) स्तूप, सुन्दर मुकुट, मुक्तावली हार, कुंडल, हाथी, उत्तम बैल, द्वीप मेरु पर्वत गरुड़ के चिह्न वाली ध्वजा, इन्द्रकेतु-इन्द्रमहोत्सव में गाड़ा जाने वाला स्तम्भ, दर्पण, अष्टापद फलक या पट जिस पर चौपड़ आदि खेली जाती है या कैलाश पर्वत, धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला-करधनी, वीणा, गाड़ी का जुआ,छत्र, दाम-माला, दामिनी, पैरों तक लटकती माला, कमण्डलु, कमल, घंटा, उत्तम पोत-जहाज, सुई (कर्ण) सागर, कुमुदवन, अथवा कुमुदों से व्याप्त तालाब, मगर, हार, जल कलश, नूपुर-पाजेब, पर्वत, नगर, व्रज, किन्नर-देवविशेष या वाद्यविशेष मयूर, उत्तम, राजहंस, सारस, चकोर, चक्रवाकयुगल, चंवर, ढाल, पव्वीसक-एक प्रकार का बाजा, विपंची-सात तारों वाली वीणा,श्रेष्ठ पंखा, लक्ष्मी का अभिषेक, पृथ्वी, तलवार, अंकुश, निर्मल कलश, शृंगार-झारी और वर्धमानक-सिकोरा अथवा प्याला, इन सब श्रेष्ठ पुरुषों के मांगलिक एवं विभिन्न लक्षणों को धारण करने वाले होते हैं। इसके अलावा बत्तीस हजार श्रेष्ठ मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा अनुगतबत्तीस हजार श्रेष्ठ युवतियों-महारानियों के चौसठ हजार नेत्रों के लिए प्रिय होते हैं। वे रक्तवर्ण की शारीरिक कांति वाले, कमल के गर्भ-मध्यभाग, चम्पा के फूलों, कोरंट की माला और कसौटी पर खींची हुई तप्त सुवर्ण की रेखा के समान गौर वर्ण वाले, बत्तीस-वररायसहस्साणुजायमग्गा। चउसट्ठिसहस्स-पवर-जुवतीण णयणकता। रत्ताभा पउम-पम्ह-कोरंटग-दाम-चंपक-सुययवरकणकनिहसवन्ना सुवण्णा,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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