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________________ आश्रव अध्ययन १०२५ सुजाय-सव्वंग सुंदरंगा महग्घ वर-पट्टणग्गय-विचित्तरागएणि-पेणि-णिम्मिय-दुगुल्लवर-वीणपट्ट-कोसेज्ज सोणी सुत्तक-विभूसियंगा। वर-सुरभि-गंधवर चुण्णवास-वरकुसुम-भरिय-सिरया, कप्पिय-छेयायरिय-सुकय-रइयमाल-कडगंगय तुडिय-पवरभूसण-पिणद्धदेहा, एकावलि-कंठ-सुरइयवच्छा पालब-पलंब-माण-सुकयपडउतरिज्ज-मुद्दिया, पिंगलंगुलिया, उज्जल-नेवत्थ-रइयचेल्लग-विरायमाणा, तेएण दिवाकरोव्व दित्ता सारय-नवत्थणिय-महुर-गंभीर-निद्धघोसा, उप्पण्ण-समत्त-रयण-चक्करयणप्पहाणा, नव निहिवइणो, समिद्धकोसा चाउरंता, चाउराहिं सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा, तुरगवई, रहवई, नरवई, विपुलकुल वीसुयजसा, सारय-ससि-सकलसोमवयणा, सूरा तेलोक्क-निग्गय-पभावलद्ध-सद्दा, समत्तभरहाहिवा नरिंदा, ससेल-वण-काणणं च हिमवंत सागरंतं धीरा, भुत्तूण भरहवासं जियसत्तू, पवर-राय-सीहा, पुव्वकयतवप्पभावा, निविट्टसंचिय सुहा अणेगवाससयमायुवंतो भज्जाहि य जणवयप्पहाणहिं लालियंता, अतुल सद्द-फरिस-रस-रूवं गंधे य अणुभवेत्ता तेवि उवणमंति विवित्ता कामाणं। -पण्ह. आ.४,सु.८३-८५ अत्यन्त सुन्दर और सुडौल सभी अंगोपांग वाले, बड़े-बड़े पत्तनों में बने हुए विविध रंगों व हिरनी तथा विशिष्ट जाति की हिरनी के चर्म के समान कोमल और बहुमूल्य वल्कल से बने वस्त्रों तथा चीनांशुकों चीन में बने वस्त्रों रेशमी वस्त्रों से तथा कटिसूत्रकरधनी से सुशोभित शरीर वाले होते हैं। वे सुरभिगंध वाले सुन्दर चूर्ण के गंध और उत्तम कुसुमों से युक्त मस्तक वाले, कुशल कलाचार्यों शिल्पियों द्वारा निपुणतापूर्वक बनाई हुई सुखकर माला, कड़े, अंगद-बाजूबंद तुटिक-अनन्त तथा अन्य उत्तम आभूषणों से विभूषित अंगोपांग वाले होते हैं। वे एकावली हार से सुशोभित कण्ठ वाले, लम्बी लटकती धोती एवं उत्तरीय वस्त्र दुपट्टा पहनने वाले, अंगूठियों से पीली हो रही उंगलियों वाले, उज्ज्वल एवं सुखप्रद वेष-पोशाक से अत्यन्त शोभायमान अपनी तेजस्विता से सूर्य के समान दमकने वाले, शरद् ऋतु के नये मेघ की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर एवं स्निग्ध घोष आवाज वाले होते हैं। वे उत्पन्न चौदह रत्नों-जिनमें चक्ररत्न प्रधान है और नौ निधियों के अधिपति, समृद्ध कोषागार चातुरन्त-तीन दिशाओं में समुद्र और एक दिशा में हिमवान् पर्वत पर्यन्त राज्य सीमा वाले, अनुगमन करती चतुरंगिणी सेना-गजसेना, अश्वसेना, रथसेना, एवं पदाति सेना तथा अश्वों, हाथियों, रथों एवं मनुष्यों के अधिपति, उच्च कुल वंशवान् तथा विश्रुत दूर-दूर तक फैले यश वाले शरद् ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख वाले, शूरवीर, तीनों लोकों में विश्रुत प्रभाव एवं जय जयकार किये जाते, सम्पूर्ण-छह खण्ड वाले, भरत क्षेत्र के अधिपति, धीर, समस्त शत्रुओं के विजेता, बड़े-बड़े राजाओं में सिंह के समान, पूर्वकाल में किए तप के प्रभाव से सम्पन्न, संचित पुष्ट सुख को भोगने वाले, सैकड़ों वर्षों के आयुष्य वाले एवं नरों में इन्द्र के समान चक्रवर्ती भी पर्वतों, वनों और काननों सहित उत्तर दिशा में हिमवान् नामक वर्षधर पर्वत और शेष तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त भरत क्षेत्र के राज्यशासन का उपभोग करके, (विभिन्न) जनपदों में जन्म लेने वाली, उत्तम भार्याओं के साथ अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध सम्बन्धी काम भोगों का भोगोपभोग करते हुए भी वे काम-भोगों से तृप्त हुए बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। ४७. बलदेव-वासुदेवों की भोग-गृद्धि इसके अलावा पुरुषों में अत्यन्त श्रेष्ठ महान् बलशाली और महान् पराक्रमी बड़े-बड़े सारंग आदि धनुषों को चढ़ाने वाले, महासत्व के सागर, शत्रुओं द्वारा अपराजेय, धनुर्धारी, मनुष्यों में अग्रगण्य, वृषभ के समान सफलतापूर्वक भार का निर्वाह करने वाले, राम-बलराम और केशव-श्रीकृष्ण-दोनों भाई-भाई अथवा भाइयों सहित एवं विशाल परिवार समेत बलदेव तथा वासुदेव जैसे विशिष्ट ऐश्वर्यशाली भोग भोगने पर भी तृप्त नहीं हो पाते। वे वसुदेव तथा समुद्रविजय आदि दशाह-माननीय पुरुषों के तथा प्रद्युम्न प्रति शम्ब, अनिरुद्ध निषध, उल्मक, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख आदि यादवों और साढ़े तीन करोड़ कुमारों के हृदयों को दयित-प्रिय होते हैं। ४७. बलदेव-वासुदेवाणं भोग-गिड्ढि भुज्जो-भुज्जो बलदेव-वासुदेवा ये पवरपुरिसा महाबल-परक्कमा महाधणुवियट्टका महासत्तसागरा दुद्धरा धणुद्धरा नरवसभा राम-केसवा भायरो सपरिसा। वसुदेव-समुद्दविजयमादियदसाराणं पज्जुन्न-पतिव-संबअनिरुद्ध-निसह-उम्मय सारणगय-सुमुह-दुम्मुहादीण- जावयाणं, अद्भुट्ठाणा वि कुमारकोडीणं हिययदयिया,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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