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आश्रव अध्ययन
१. अबभ, २. मेहुणं, ३ चरतं, ४ संसग्गि ५. सेवणाहिगारो, ६. संकप्पो, ७. बाहणापयाणं, ८. दप्पो, ९. मोहो, १०. मणसंखोभो, ११. अणिग्गहो, १२. विग्गहो, १३. विधाओ १४ विभणी, १५. विब्भमो, १६. अहम्मो, १७. असील्या १८. गामधम्मतित्ती, १९. रई, २०. रागचिंता, २१ काम भोग-मारो, २२. वेर, २३. रहसं २४. गुज्झ २५. बहुमाणी, २६. बभेचरविग्धो २७. वावत्ति, २८. विराहणा, २९. पसंगी, ३०. कामगुणो निविय
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तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होंति तीसं ।
४५. अबभसेवगा देव-मनुय-तिरिक्खा
- पण्ह. आ. ४, सु. ८१
तं च पुण निसेवंति सुरगणा स-अच्छरा मोहमोहियमई१. असुर, २. भुवग, ३. गरुल, ४. विज्जु, ५. जलण, ६. दीव, ७. उदही, ८. दिसि ९ पयण, १० थणिया,
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१. अणवनि २ पणवनि व ३. इसिवाई य, ४. भूयवाह य ५. कंदि य, ६. महाकंदि य, ७. कूहंड, ८. पयंगदेवा ।
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१. पिसाय, २. भूय, ३. जक्ख, ४. रक्खस, ५. किन्नर, ६. किंपुरिस, ७. महोरग, ८. गंधव्वा ।
तिरिय जोइय विमाणवासि मणुयगणा।
जलयर-थलयर - खहयरा य ।
मोहपडिबद्धचित्ता, अवितण्हा काम भोगतिसिया, तण्हाए बलवईए महईए समभिभूया गढिया य अइमुच्छिया य अबभे उस्सण्णा, तामसेण भावेण अणुम्मुक्का,
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१. अब्रह्म- निन्दित प्रवृत्ति या अशुभ आचरण, २. मैथुन- स्त्री-पुरुष संयोगज कृत्य, ३. चरंत समस्त संसारी प्राणियों में व्याप्त, ४. संसर्गि- स्त्री पुरुष के संसर्ग से होने वाला, ५. सेवनाधिकार- चोरी आदि पापकर्मों के सेवन में लगाने वाला, ६. संकल्पी - कुसंकल्प विकल्पों का कारण, ७. पद- बाधक - संयम का बाधक, ८. दर्प-उन्मत्तत्ता का निमित्त, ९. मोह - हिताहित के विवेक का नाशक और मूढ़ता अज्ञान का कारण, १०. मन संक्षोभ मन में क्षोभ उद्वेग का उत्पादक, ११. अनिग्रह - स्वच्छंद वृत्ति प्रवृत्ति से उत्पन्न, १२. विग्रह- कलह-क्लेश का उत्पादक, १३. विघात - आत्मगुणों और विश्वास का घातक, १४. विभंगसंयम को भंग करने वाला, १५. विभ्रम भ्रांति मिथ्या धारणा का जनक, १६. अधर्म - पाप का कारण, १७. अशीलता - सदाचार विरोधी, १८. ग्रामधर्मतृप्ति - इन्द्रियों के विषयों की गवेषणा करने वाला, १९. रति-सुरत संभोग का कारण, २० रागचिन्ता - स्त्री शृंगार, हाव-भाव का अभिलाषी, २१ कामभोगमार- कामभोग जन्य मृत्यु का कारण, २२. वैर-विरोध का हेतु, २३. रहस्यएकान्त में किया जाने वाला कृत्य, २४. गुह्य - लुक-छिपकर किया जाने वाला कार्य, २५ बहुमान कामीजनों द्वारा सम्मानित, २६. ब्रह्मचर्यविघ्न-ब्रह्मचर्य पालन में विघ्नकारी, २७. व्यापत्तिआत्म गुणों का घातक, २८. विराधना सम्यक्चारित्र का विघातक, २९. प्रसंग- आसक्ति का अवसर, ३०. कामगुणकामवासना का कर्म ।
अब्रह्मचर्य के इन तीस नामों के अलावा इसी प्रकार के और दूसरे भी नाम होते हैं।
४५. अब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले देव, मनुष्य और तिर्यञ्चउस अब्रह्म नामक पापाश्रव का मोह के उदय से मोहित मति वाले१. असुरकुमार, २. भुजग-नागकुमार, ३. गरुड़कुमारसुपर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार ५. जलन अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. दिशाकुमार, ९ पवनकुमार तथा १०. स्तनित कुमार, ये दस प्रकार के भवनवासी देव१. अणपत्रिक २. पणपत्रिक, ३ ऋषिवादिक, ४. भूतवादिक, ५. क्रन्दित, ६. महाक्रन्दित, ७. कूष्माण्ड और ८. पतंग देव, ये आठ व्यन्तर जाति के देव तथा
१. पिशाच, २. भूत, ३. यक्ष, ४. राक्षस, ५. किन्नर, ६. किम्पुरुष, ७. महोरग और ८. गन्धर्व । ये आठ प्रकार के मुख्य व्यन्तर देव अपनी अप्सराओं, देवांगनाओं के साथ एवं
इनके अतिरिक्त मध्य लोक में निवास करने वाले ज्योतिष्क देव, तथा विमानवासी वैमानिकदेव एवं मनुष्यगण,
तथा जलचर, स्थलचर एवं खेचर (पक्षी) ये अब्रह्म का सेवन करते हैं।
जिनका चित्त मोह से ग्रस्त हो गया है, जिनकी प्राप्त कामभोग सम्बन्धी तृष्णा का अन्त नहीं हुआ है, जो अप्राप्त कामभोगों के लिए आतुर हैं, तीव्र एवं बलवती तृष्णा ने जिनके मानस को प्रबल काम-लालसा से पराजित कर दिया है, जो विषयों में गृद्ध अत्यन्त आसक्त एवं अतीव मूर्च्छित हैं। जो अब्रह्म के कीचड़ में फंसे हुए हैं। और जो तामसभाव- अज्ञान रूप जड़ता से मुक्त नहीं हुए हैं, ऐसे देव, मनुष्य, और तिर्यञ्च अन्योन्य परस्पर नर-नारी के रूप में