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________________ १०२२ ४१. अदिण्णादाण फल एसो सो अदिण्णादाणस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्सो महब्भओ बहरवप्यगाझे दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, नय य अवेदयित्ता अत्थि उ मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महाया जिणो उ वीरवरनामधेज्जो कहेसी य अदिन्नादाणस्स फलविवागं, - पण्ह. आ. ३, सु. ७८ (ख) ७९ (क) ४२. अदिण्णादाणस्स उवसंहारो एवं तं तइयं पि अदिन्नादाणं हर दह मरण-भय-कलुसतासण-परसंतिक भेज्ज-लोभ-मूलं चिरपरिगयमणुगयं दुरंतं । एवं तहयं अहम्मदारं समतं ति बेमि ४३. अबंभ सरूवं थी पुरिस नपुंगवेयचिंध, तव - संजम - बंभचेरविग्धं, भेदायतण-बहुपमायमूलं, कायर-कापुरिस सेवियं, जंबू ! अबंभं च चत्थं, स देव मणुयासुरस्त लोयस्स पत्थणिज्जं पंक-पणय- पासजालभूयं, - पण्ह. आ. ३, सु. ७९ (ख) सुयणजणवज्जणिज्जं, उड्ढ नरय- तिरिय-तिलोक्क पइट्ठाणं, जरा-मरण-रोग-सोगबहुलं, वह बंध-विधाय दुविधायें, दंसण चरित्तमोहस्स हेउभूर्य, चिरपरिचियमणुगयं दुरंत चउत्थं अहम्मदारं । " ४४. अबंभपज्जव णामाणि जाव - पण्ह. आ. ४, सु. ८० तस्स य णामाणि गोण्णाणि इमाणि होंति तीसं, तं जहा द्रव्यानुयोग - ( १ ) ४१. अदत्तादान का फल अदत्तादान का यह फलविपाक है अर्थात् अदत्तादान रूप पापकृत्य का उदय में आया विपाक परिणाम है। यह इहलोक-परलोक में सुख से रहित है और दुःखों की प्रचुरता वाला है । अत्यन्त भयानक है। अतीव प्रगाढ़ कर्मरूपी रज वाला है। बड़ा ही दारुण है, कर्कश कठोर है, असात्तामय है और हजारों वर्षों में इससे पिण्ड छूटता है, किन्तु इसे भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन, महान् आत्मा वीरवर (महावीर) नामक जिनेश्वर ने अदत्तादान नामक इस तीसरे ( आश्रव द्वार के ) फलविपाक का प्रतिपादन किया है। ४२. अदत्तादान का उपसंहार यह अदत्तादान परधन, अपहरण, दहन, मृत्यु भय, मलिनता, त्रास, रौद्रध्यान एवं लोभ का मूल है, इस प्रकार यह यावत् चिरकाल से प्राणियों के साथ लगा हुआ है, इसका अन्त कठिनाई से होता है। इस प्रकार यह तीसरे अधर्म द्वार अदत्तादान का वर्णन है, ऐसा मैं कहता हूँ। ४३. अब्रह्मचर्य का स्वरूप हे जम्बू ! चौथा आश्रवद्वार अब्रह्मचर्य है। यह अब्रह्मचर्य देवों, मानवों और असुरों सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय है-संसार के समग्र प्राणी इसकी अभिलाषा करते हैं। यह प्राणियों को फंसाने वाले दल-दल के समान है, इसके सम्पर्क से जीव उसी प्रकार फिसल जाते हैं जैसे काई के संसर्ग से फिसल जाते हैं। यह संसार के प्राणियों को बांधने के लिये पाश के समान है और फंसाने के लिए जाल के सदृश है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसका चिन्ह है। यह तप, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नरूप है। यह सदाचार-सम्यक्चारित्र का विनाशक और प्रमाद का मूल है। कायरों - सत्वहीन प्राणियों और कापुरुषों-निन्दित- निम्नवर्ग के पुरुषों (जीवों) द्वारा इसका सेवन किया जाता है। यह सज्जनों और संयमीजनों द्वारा वर्जनीय है। ऊर्ध्व अधो व तिर्यक्लोक इस प्रकार तीनों लोकों में इसकी अवस्थिति है। जरा, मरण, रोग और शोक का कारण है। वध, बन्ध और प्राणनाश होने पर भी इसका अन्त नहीं आता है। यह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का मूल कारण है। अनादिकाल से परिचित है और सदा से प्राणियों के ड़ा हुआ है, यह दुरन्त है अर्थात् कठिन साधना से ही इसका अन्त आता है। यह तथा अधर्मद्वार है। ४४. अब्रह्मचर्य के पर्यायवाची नाम पूर्व प्ररूपित उस अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न सार्थक ये तीस नाम हैं, यथा
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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