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________________ आश्रव अध्ययन दारिद्दीवद्दवाभिभूया, निच्चं परकम्मकारिणो, जीवणत्थरहिया किविणा परपिंडतका दुक्खलद्धाहारा, अरस-विरस तुच्छकय कुच्छिपूरा, परस्स पेच्छंता रिद्धि-सक्कार-भोयण-विसेससमुदय विधिं निंदंता अप्पकं कयंतं च परिवयंता । इह य पुरेकडाई कम्माई पावगाई विमणसो सोएण उज्झमाणा परिभूया होति । सत्तपरिवज्जिया यछोभा सिप्पकला समयसत्य परिवज्जिया, जहा जायपसुभूया अवियत्ता, णिच्चं नीयकम्मोपजीविणो, लोय कुच्छणिज्जा, मोघमणोरहा निरासबहुला, आसापास पडिबद्धपाणा, लोयसारे होंति अफलवंतका य। अत्थोपायाण- कामसोवखे य सुट्ठा वि य उज्जमंता तद्दिवसुज्जुत्त-कम्मकयदुक्खसंठविय- सित्यपिंडसंचयपरा पक्खीण-दव्यसारा, निच्च अधुवधण धन कोस परिभोग-विवज्जिया, रहिय काम भोग- परिभोग सव्वसोक्खा, परसिरि अकामिकाए विणेति दुक्खं, भोगोवभोगनिस्साण-मग्गण-परायणा वरागा णेव सुहं णेव निब्बुइं उवलभंति, अच्चंत विपुल दुक्खसय-संपलित्ता, परस्स दव्वेहिं जे अविरया । - पण्ह. आ. ३, सु. ७७-७८ (क) १०२१ उन्हें दरिद्रता का कष्ट सदा सताता रहता है। ये सदा परकर्मकारी-दूसरों के अधीन रह कर काम करते हैं। साधारण जीवन बिताने योग्य साधनों से भी रहित होते हैं। कृपण- रेक- दीन-दरिद्र रहते हैं। दूसरों के द्वारा दिये जाने वाले पिण्ड-आहार की तलाश में रहते हैं। कठिनाई से दुःखपूर्वक आहार प्राप्त करते हैं। किसी प्रकार रूखे-सूखे नीरस एवं निस्सार भोजन से पेट भरते हैं। दूसरों का वैभव, सत्कार, सम्मान, भोजन, वस्त्र आदि समुदयअभ्युदय देखकर वे अपनी निन्दा करते हैं-अपने दुर्भाग्य को कोसते रहते हैं। अपनी तकदीर को रोते हैं। इस भव में या पूर्वभव में किये पाप कर्मों की निन्दा करते हैं। उदास मन रह कर शोक की आग में जलते हुए लज्जित-तिरस्कृत होते हैं। साथ ही वे सत्वहीन क्षोभग्रस्त तथा चित्रकला आदि शिल्प के ज्ञान से रहित, विद्याओं से शून्य एवं सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञान से शून्य होते हैं। यथाजात अज्ञान पशु के समान जड़ बुद्धि वाले अविश्वसनीय या अप्रतीति उत्पन्न करने वाले होते हैं। सदा नीच कृत्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं, लोकनिन्दित, असफल मनोरथ वाले, निराशा से ग्रस्त होते हैं। अदत्तादान का पाप करने वालों के प्राण सदैव अनेक प्रकार की आशाओं-कामनाओं- तृष्णाओं के पाश में बंधे रहते हैं, लोक में सारभूत अनुभव किये जाने वाले अथवा माने जाने वाले अर्थोपार्जन एवं कामभोगों सम्बन्धी सुख के लिए अनुकूल या प्रबल प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती। प्रतिदिन उद्यम करने पर भी, कड़ा श्रम करने पर भी उन्हें बड़ी कठिनाई से सिक्थपिण्ड-इधर-उधर बिखरा फेंका झूठा भोजन ही नसीब होता है। वे प्रक्षीणद्रव्यसार होते हैं अर्थात् कदाचित् कोई उत्तम द्रव्य मिल जाए तो वह भी नष्ट हो जाता है। अस्थिर, धन, धान्य और कोश के परिभोग से वे सदैव वंचित रहते हैं। काम शब्द और रूप तथा भोग गन्ध स्पर्श और रस के भोगोपभोग के सेवन से उनसे प्राप्त होने वाले समस्त सुख से भी वंचित रहते हैं। परायी लक्ष्मी के भोगोपभोग को अपने अधीन बनाने के प्रयास में तत्पर रहते हुए भी ये बेचारे दरिद्र न चाहते हुए भी केवल दुख के ही भागी होते हैं। उन्हें न तो सुख नसीब होता है, न शान्ति, मानसिक स्वस्थता या सन्तुष्टि मिलती है। इस प्रकार जो पराये द्रव्यों पदार्थों से विरत नहीं हुए हैं अर्थात् जिन्होंने अदत्तादान का परित्याग नहीं किया है, वे अत्यन्त एवं विपुल सैकड़ों दुखों की आग में जलते रहते हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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