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________________ १०१२ द्रव्यानुयोग-१) ३५. सामुहिय तकरा रयणागरसागरं उम्मीसहस्समालाउलाकुल-वितोयपोतकलकलेंतकलियं पायालसहस्स-वायवसवेग- सलिलउद्धममाण दगरय-रयंधकार। मारुय वरफेणपउरधवल-पुलंपुलसमुट्ठियट्ट हासं, विच्छभमाणपाणियं जलमालुप्पीलहुलियं। अवि य समंतओ खुभिय-लोलिय-खोखुब्भमाण-पक्खलियचलिय-विउलजल-चक्कवाल-महानईवेगतुरिय आपूरमाणागंभीर-विपुल-आवत्त-चवल-भममाणगुप्पमाणुच्छलंत-पच्चोणियत्त-पाणिय-पधाविय-खरफरुस-पयंड-वाउलिय-सलिल-फुटत-वीतिकल्लोल-संकुलं। महामगर मच्छ-कच्छभोहार-गाह-तिमि-सुंसुमार-सावयसमाहय-समुद्धायमाणकपूर घोरपउर, ३५. सामुद्रिक तस्कर (इन चोरों के सिवाय कुछ अन्य प्रकार के लुटेरे भी होते हैं, जो धन के लालच में फंसकर समुद्र में लूटमार करते हैं) वे लुटेरे रनों के आकर-खान, समुद्र में चढ़ाई करते हैं,जो सहस्रों तरंग-मालाओं से व्याप्त होता है, पेय जल के अभाव में जहाज के आकुल-व्याकुल मनुष्यों की कल-कल-ध्वनि से युक्त होता है, सहनों पाताल-कलशों की वायु के क्षुब्ध हो जाने से तेजी से ऊपर उछलते हुए जलकणों की रज से अंधकारमय बना हुआ होता है। निरन्तर प्रचुर मात्रा में उठने वाले श्वेतवर्ण के फेन ही मानों उसका अट्टहास है। वहां पवन के प्रबल थपेड़ों से जल क्षुब्ध होता रहता है। वहां जल की तरंग मालाएं तीव्र वेग के साथ तरंगित होती हैं, इसके अतिरिक्त चारों और तूफानी हवाएं उसे क्षुभित करती रहती हैं, जो तट के साथ टकराते हुए जल-समूह तथा मगर-मच्छ आदि जलीय जन्तुओं के कारण अंत्यन्त चंचल रहता है। बीच-बीच में उभरे हुए पर्वतों के साथ टकराने वाले एवं बहते हुए अथाह जल-समूह से युक्त है, गंगा आदि महानदियों के वेग से जो शीघ्र ही लबालब भर जाने वाला है, जिसके गंभीर एवं अथाह भंवरों में जलजन्तु अथवा जलसमूह चपलतापूर्वक भ्रमण करते हुए व्याकुल होकर ऊपर-नीचे उछलते हैं और जो वेगवान् अत्यन्त प्रचण्ड क्षुब्ध हुए जल में से उठने वाली लहरों से व्याप्त है, महाकाय मगर-मच्छों, कच्छपों, ओहार नामक जल जन्तुओं, घड़ियालों बड़ी मछलियों सुसुमारों एवं श्वापद नामक जलीय जीवों के परस्पर टकराने तथा एक दूसरे को निगल जाने के लिए दौड़ने से वह समुद्र अत्यन्त घोर-भयावह होता है, जिसे देखते ही कायर-जनों का हृदय कांप उठता है, अतीव भयानक और प्रतिक्षण भय उत्पन्न करने वाला है, अतिशय उद्वेग का जनक है जिसका आर-पार कहीं दिखाई नहीं देता है, जो आकाश के सदृश आलंबनहीन है अर्थात् समुद्र में जिसका कोई सहारा नहीं है। उत्पात से उत्पन्न होने वाले पवन से प्रेरित और ऊपराऊपरी एक के बाद दूसरी गर्व से इठलाती हुई लहरों के वेग से जो नेत्रपथ-नजर को आच्छादित कर देता है। उस समुद्र में कहीं कहीं गंभीर मेघगर्जना के समान गूंजती हुई, व्यन्तर देवकृत घोर ध्वनि के सदृश तथा उस ध्वनि से उत्पन्न होकर दूर दूर तक सुनाई देने वाली प्रतिध्वनि के समान गम्भीर और धुक् धुक् करती ध्वनि सुनाई पड़ती है। प्रतिपथ प्रत्येक प्रसंग में रुकावट डालने वाले यक्ष, राक्षस, कूष्माण्ड एवं पिशाच जाति के कुपित व्यन्तर देवों के द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले हजारों उपद्रवों से परिपूर्ण है। जो बलि, होम और धूप देकर की जाने वाली देवता की पूजा और रुधिर देकर की जाने वाली अर्चना में प्रयत्नशील एवं सामुद्रिक व्यापार में निरत नौका-वणिकों द्वारा सेवित है। जो कलिकाल-अन्तिम युग अर्थात् प्रलयकाल के कल्प के समान जिसका पार पाना कठिन है, जो गंगा आदि महानदियों का अधिपति है और देखने में अत्यन्त भयानक है जिसका पार करना बहुत ही कठिन है या जिसमें यात्रा करना अनेक संकटों से परिपूर्ण कायरजण-हिययकंपणं, घोरमारसंत, महब्भयं, भयंकरपइभयं, उत्तासणगं,अणोरपारं आगासं चेव निरवलंब, उप्पायण-पवण-धणिय-नोल्लिय-उवरूवरी-तरंग-दरियअइवेयवेगचक्खु पहमुच्छरंत। कत्यइ गंभीर-विपुलगज्जिय-गुंजिय-निग्घाय-गरुय-निवतितसुदीह-नीहारि-दूरसुव्वंत-गंभीर-धुगधुगंत-सद्दे, पडिपहरुभंत, जक्ख-रक्खस-कुहंड-पिसाय-रूसियतज्जाय-उवसग्ग-सहस्स-संकुलं। बहुप्पाइयभूयं विरचिय बलि-होम-धूम-उपचार दिन-रुधिरच्चणाकरण-पयतजोग-पययचरियं, परियंत जुगंत-काल-कप्पोवमं-दूरंत-महानई-नईवइ महाभीमदरिसणिज्जं, दुरणुच्चरं, विसमप्पदेसं, दुक्खुत्तारु, दुरासयं, लवणसलिलपुण्णं,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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