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________________ आश्रव अध्ययन असिय- सिय-समुसियगेहिं दच्छत्तरेहिं वाहणेहिं अइवइता समुद्दमझे हणंति, गंतूण-जणस्स पोते परदव्वहरा नरा । - पण्ह. आ. ३, सु. ६७ ३६. गामाइजण अवहारगाणां चरिया णिरणुकंपा निक्कंखा गामागर-नगर- खेड- कब्बड-मडंबदो मुह-पट्टणासमणिगम जणवए ते य धणसमिद्धे हणंति । थिरहियया य छिन्नलज्जा बंदिग्गह-गोग्गहे य गिण्हंति, दारुणमई निक्किया निकिया नियं हणति छिंदति गेहसंधि निक्खित्ताणि य हरंति, धण-धन्न- दव्वजाय - जणवयकुलाणं णिग्विणमई परस्स दव्याहिं जे अविरया । तहेव केइ अदिन्नादाणं गवेसमाणा कालाकालेसु संचरंता चियकापज्जलिय - सरस-दरदड्ढ - काड्ढय-कलेवरे, रुहिरलित्त वयण - अक्खय खात्तिय पीत-डाइणि-भमंतभयंकरे, जंबुक्क्यते, धूयकयघोर सद्दे, वेलुट्ठिय निसुद्ध कहकहिय-पहसिय-बीहणकनिरभिरामे, अतिदुभिगंध बीभच्छ दरिसणिजे, "सुसाण-वण-सुन्नघर-लेण-अंतरावण गिरिकंदर विसमसावयकुला वसही किलिस्संता, सीयातव सोसिय सरीरा दढच्छवी, निरय- तिरियभव- संकड- दुक्खसंभार-वेयणिज्जाणि, पावकम्माणि संचिणंता, दुल्लह-भक्खऽन्न पाण-भोयणा, पिवासिया, झुझिया किलंता, मंस-कुणिम-कंद-मूलजं, किंचिकयाहारा १०१३ है, जिसमें प्रवेश पाना भी कठिन है, जिसके किनारे पहुंचना भी कठिन है, जिसका आश्रय लेना भी दुःखमय है और खारे पानी से परिपूर्ण होता है, ऐसे समुद्र में अन्य के द्रव्य के अपहारक डाकू ऊंचे किए हुए काले और श्वेत पालों वाले अति वेगपूर्वक चलने वाले, पतवारों से सज्जित जहाजों द्वारा आक्रमण करके समुद्र के मध्य में जाकर सामुद्रिक व्यापारियों के जहाजों को नष्ट कर देते हैं। ३६. ग्रामादिजनों के अपहारकों की चर्या जिनका हृदय अनुकम्पा दया से शून्य है, जो परलोक की परवाह नहीं करते, ऐसे लोग धन से समृद्ध ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, महम्बों, पत्तनों, द्रोणमुखों, आश्रमों, निगमों एवं देशों को नष्ट कर देते हैं। , वे कठोर हृदय वाले या निहित स्वार्थ वाले निर्लज्ज लोग मानवों को बन्दी बनाकर अथवा गायों आदि को बांध कर ले जाते हैं, दारुण मति वाले निर्दय या निकम्मे अपने आत्मीय जनों का भी घात करते हैं, वे गृहों की सन्धि को छेदते हैं अर्थात् सेंध लगाते हैं। जो दूसरे के द्रव्यों से विरत निवृत्त नहीं है, ऐसे निर्दय बुद्धि वाले-वे चोर लोगों के घरों में रखे हुए धन, धान्य एवं अन्य प्रकार के द्रव्य के समूहों को हर लेते हैं। इसी प्रकार कितने ही चोर अदत्तादान की गवेषणा- खोज करते हुए काल और अकाल में इधर उधर भटकते हुए ऐसे श्मशान में फिरते हैं। जहां चिताओं में जलती हुई रुधिर आदि से युक्त, अधजली एवं खींच ली गई लाशें पड़ी हैं, रक्त से लथपथ मृत शरीरों को पूरा ला लेने और रुधिर पी लेने के पश्चात् इधर उधर फिरती हुई डाकिनों के कारण जो अत्यन्त भयावह जान पड़ता है। जहां जम्बुक गीदड़ खीं खीं ध्यान कर रहे हैं, उत्तुओं की डरावनी आवाज आ रही है। भयोत्पादक एवं विद्रूप पिशाचों द्वारा ठहाका मार कर हंसने से जो अतिशय भयावना एवं अरमणीय हो रहा है और तीव्र दुर्गन्ध से व्याप्त एवं घिनौना होने के कारण देखने में जो भीषण जान पड़ता है। ऐसे श्मशानों, वनों, सूने घरों, लपनों शिलामय गृहों बनी हुई दुकानों, पर्वतों की गुफाओं, विषम-ऊबड़ खाबड़ स्थानों और सिंह बाघ आदि हिंस्र प्राणियों से व्याप्त स्थानों में क्लेश भोगते हुए इधर-उधर मारे-मारे भटकते हैं। उनके शरीर की चमड़ी शीत और उष्ण से शुष्क हो जाती है। सर्दी गर्मी की तीव्रता को सहन करने के कारण उनकी चमड़ी कड़ी हो जाती है या चेहरे की कान्ति मन्द पड़ जाती है। वे नरकभव और तिर्यञ्च भव रूपी गहन वन में होने वाले निरन्तर दुःखों की अधिकता द्वारा भोगने योग्य पापकर्मों का संचय करते हैं। जंगल में इधर-उधर भटकते छिपते रहने के कारण उन्हें खाने योग्य अन्न और जल भी दुर्लभ होता है। कभी प्यास से पीड़ित रहते हैं, भूखे रहते हैं, थके रहते हैं और कभी कभी मांस शव-मुर्दा, कभी कन्दमूल आदि जो कुछ भी मिल जाता है उसी को खा लेते हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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