SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आश्रव अध्ययन १०११ सयराह-हसंत-रूसंत-कलकलारवे, आसुणियवयणरुद्दे, भीम दसणाधरोट्ठ-गाढदढे, सप्पहरणुज्जयकरे। अमरिसवस-तिव्वरत्त निद्दारितच्छे, वेरदिट्ठिकुद्धचिट्ठिय-तिवलीकुडिल-भिउडिकय-निलाडे। वह-परिणय-नरसहस्स-विक्कमे वियंभियबले, वग्गंततुरग-रह-पहाविय-समरभडा आवडिय-छेय-लाघवपहार-पसाधिय-समुस्सिय-बाहु-जुयल-मुक्कट्टहासपुक्कंतबोलबहुले। फुरफलगावरण-गहिय-गयवर-पत्थित दरिय-भड-खलपरोप्पर-पलग्ग-जुद्ध-गव्विय-विउसित-वरासि-रोसतुरिय-अभिमुह-पहरंत-छिन्न-करिकर-विभगियकरे। अवइद्ध-निसुद्ध-भिन्न कद्दम-चिलिचिल्लपहे। फालिय-पगलिय-रुहिरकय-भूमि कुच्छि-दालिय-गलिय-रुलंत-निब्मेलितंत-फुरफुरंत अविगल-मम्माहय-विकय-गाढदिन्नपहारमुच्छित-लुठंत बेंभल-विलाव-कलुणे। उसमें एक साथ हंसने रोने और कराहने के कारण कलकल ध्वनि होती रहती है, मुंह फुलाकर आंसू बहाते हुए बोलने के कारण वह रौद्र होता है, उस युद्ध में भयानक दांतों से होठों को जोर से काटने वाले योद्धाओं के हाथ अचूक प्रहार करने के लिए उद्यत रहते हैं। क्रोध की तीव्रता के कारण योद्धाओं के नेत्र रक्तवर्ण और तरेरते हुए होते हैं, वैरमय दृष्टि के कारण क्रोधपरिपूर्ण चेष्टाओं से उनकी भौंहें तनी रहती हैं और इस कारण उनके ललाट पर तीन सल पड़े हुए होते हैं। उस युद्ध में मार-काट करते हुए हजारों योद्धाओं के पराक्रम को देख कर सैनिकों के पौरुष-पराक्रम की वृद्धि हो जाती है। हिनहिनाते हुए अश्व और रथों द्वारा इधर-उधर भागते हुए युद्धवीरों तथा शस्त्र चलाने में कुशल और सधे हुए हाथों वाले सैनिक हर्ष-विभोर होकर दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर खिलखिलाकर किलकारियां मारते हैं। चमकती हुई ढालें एवं कवच धारण किए हुए मदोन्मत्त हाथियों पर आरूढ़ प्रस्थान करते हुए योद्धा शत्रुयोद्धाओं के साथ परस्पर जूझते हैं तथा युद्धकला में कुशलता के कारण अहंकारी योद्धा अपनी-अपनी तलवारें म्यानों में से निकालकर फुर्ती के साथ रोषपूर्वक परस्पर एक दूसरे पर प्रहार करते हैं, हाथियों की सूड़ें काट रहे होते हैं, जिससे उनके भी हाथ कट जाते हैं। ऐसे भयावह युद्ध में मुद्गर आदि द्वारा मारे गए, काटे गए या फाड़े गए हाथी आदि पशुओं और मनुष्यों के बहते हुए रुधिर के कीचड़ से युद्धभूमि मार्ग लथपथ हो रहे होते हैं। कँख के फट जाने से भूमि पर बिखरी हुई एवं बाहर निकली हुई आंतों से रक्त प्रवाहित होता रहता है तथा तड़फड़ाते हुए विकल, मर्माहत बुरी तरह से कटे हुए प्रगाढ़ प्रहार से बेहोश हुए इधर-उधर लुढकते हुए विह्वल मनुष्यों के विलाप के कारण वह युद्ध बड़ा ही करुणाजनक होता है। उस युद्ध में मारे गए योद्धाओं के इधर-उधर भटकते घोड़े मदोन्मत्त हाथी और भयभीत मनुष्य मूल से कटी हुई ध्वजाओं वाले टूटे-फूटे रथ, मस्तक कटे हुए हाथियों के धड़ कलेवर, विनष्ट हुए शस्त्रास्त्र और बिखरे हुए आभूषण इधर-उधर बिखरे हुए होते हैं, नाचते हुए बहुसंख्यक धड़ों सिर रहित कलेवरों-पर काक और गीध मंडराते रहते हैं, इन काकों और गिद्धों के जब झुंड के झुंड घूमते हैं तब उनकी छाया के अन्धकार के कारण वह युद्ध भूमि गम्भीर बन जाती है। ऐसे भयावह-घोरातिघोर संग्राम में नृपतिगण स्वयं प्रवेश करते हैंकेवल सेना को ही युद्ध में नहीं झोंकते, देव-देवलोक और पृथ्वी को विकसित करते कंपाते हुए, दूसरे के धन की कामना करने वाले वे राजा साक्षात् श्मशान के समान अतीव रौद्र होने के कारण भयानक और जिसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है ऐसे संग्राम रूप संकट में चल कर अथवा आगे होकर प्रवेश करते है। इनके अतिरिक्त भी पैदल चल कर चोरी करने वाले चोरों के समूह होते हैं, कई ऐसे चोर सेनापति भी होते हैं जो चोरों को प्रोत्साहित करते हैं,चोरों के समूह दुर्गम अटवी-प्रदेश में रहते हैं, उनके काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत रंग के सैकड़ों चिन्ह होते हैं, जिन्हें वे अपने मस्तक पर लगाते हैं। पराये धन के लोभी वे चोर दूसरे प्रदेश में जाकर धन का अपहरण करने के लिए मनुष्यों का घात करते हैं। हयजोह-भमंत-तुरग-उद्दाम-मत्तकुंजर-परिसंकितजण-निब्बुक्क छिन्नधय-भग्गरहवर-नट्ठसिर-करिकलेवराकिन्न-पतितपहरण-विकिन्नाभरण-भूमिभागे। नच्चंत-कबंध-पउर-भयंकर-वायस-परिलेंत-गिद्धमंडलभमंत-छायंधकारगंभीरे। वसुवसुहाविकंपितव्व पच्चक्खपिउवणं परमरुद्द बीहणगं दुप्पवेसतरंग अभिवयंति संगामसंकडं परधणं महंता। अवरे पाइक्कचोरसंधा सेणावइ चोरवंदपागड्ढिका य अडवीदेसदुग्गवासी काल-हरित-रत्त पीत-सुकिल्लअणेगसय-चिंधपट्टबद्धा परविसये अभिहणंति, लुद्धा धणस्स कज्जे। -पण्ह.आ.३.सु.६५-६६
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy