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________________ ९८२ प. अलेस्सा णं भंते जीवा किरियाबाई कि भवसिद्धिया अभवसिद्धया ? उ. गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । ३. एवं एएणं अभिलावेणं कण्हपक्खिया तिसु वि समोसरणेसु भयणाए । सुक्कपक्खिया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । ४. सम्मद्दिट्ठी जहा अलेस्सा। मिच्छद्दिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । सम्ममिच्छदिट्ठी दोसु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा। ५. नाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । ६. अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । ७. सण्णासु चउसु वि जहा सलेस्सा। नो सण्णोवउत्ता जहा सम्मविट्ठी । ८. सवेगा जाव नपुंगवेयगा जहा सलेस्सा। अवेयगा जहा सम्मदिदट्ठी । ९. सकसाथी जाय लोभकसायी जहा सलेस्सा। अकसायी जहा सम्मदिट्ठी । १०. सजोगी जाव कायजोगी जहा सरसा। अजोगी जहा सम्मविट्ठी । ११. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। दं. १. एवं नेरइया वि भाणियव्वा, णवरं - णायव्वं जं अत्थि । दं. २-११. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा । दं. १२. पुढविकाइया सव्वट्ठाणेसु वि मज्झिल्लेसु दोसु विसमोसरणे भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि दं. १३-१६. एवं जाव वणस्सइकाइय त्ति । द. १७-१९. बेदितेदिय चउरिदिया एवं चेय णवरं सम्मत्ते, ओहिए नाणे, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, एएसु चेव दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया । सेसं तं चेव । दं. २०. पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, णवरं - णायव्वं जं अत्थि । दं. २१. मणुस्सा जहा ओहिया जीवा । दं. २२-२४ वाणमंतर जोइसिय-बेमाणिया जहा असुरकुमारा । - विया. स. ३०, उ. १, सु. ९४-१२५ द्रव्यानुयोग - (२) प्र. भंते ! अलेश्य क्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक है? उ. गौतम ! वे भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। ३. इसी प्रकार इस अभिलाप से कृष्णपाक्षिक तीनों समवसरणों में विकल्प से भवसिद्धिक हैं। शुक्लपाक्षिक जीव चारों समवसरणों में भवसिद्ध है अभव नहीं है। ४. सम्यग्दृष्टि अलेश्य जीवों के समान हैं। मिध्यादृष्टि कृष्णपाक्षिक के समान हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि अज्ञानवादी और विनयवादी इन दोनों समवसरणों में अलेश्यी के समान हैं। ५. ज्ञानी से केवलज्ञानी पर्यन्त भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं हैं। ६. अज्ञानी से विभंगज्ञानी पर्यन्त कृष्णपाक्षिकों के समान हैं। ७. चारों संज्ञाओं में भी सलेश्यी जीवों के समान हैं। नो संज्ञोपयुक्त जीव सम्यग्दृष्टि के समान हैं। ८. सवेदी से नपुंसकवेदी पर्यन्त का कथन सलेश्यी जीवों के समान हैं। अवेदी जीव का कथन सम्यग्दृष्टि के समान है। ९. सकषायी से लोभकषायी पर्यन्त सलेश्यी के समान हैं। अकषायी जीव सम्यग्दृष्टि के समान हैं। १०. सयोगी से काययोगी पर्यन्त सलेश्यी के समान हैं। अयोगी जीव सम्यग्दृष्टि के समान हैं। ११. साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव सलेश्यी के समान हैं। दं. १ . इसी प्रकार नैरयिकों के विषय में कहना चाहिए, विशेष-उनमें जो स्थान हैं वे कहने चाहिए। दं. २- ११. इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त जानना चाहिए। दं. १२. पृथ्वीकायिक जीव सभी स्थानों में और मध्य के दोनों समवसरणों में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। दं. १३-१६. इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए। दं. १७-१९. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव भी इसी प्रकार हैं। विशेष- सम्यक्त्व, अवधिज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान इनके मध्य के दोनों समवसरणों में भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं है। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। दं. २०. पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव नैरयिकों के समान हैं। विशेष-उनमें जो स्थान हैं वे सब कहने चाहिए। दं. २१. मनुष्यों का कथन सामान्य जीवों के समान हैं। दं. २२- २४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन असुरकुमारों के समान हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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