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________________ ९८१ क्रिया अध्ययन एवं एएणं कमेणं जहेव जच्चेव जीवाणं वत्तब्वया सच्चेव नेरइयाण विजाव अणागारोवउत्ता। णवर-जं अत्थि तं भाणियव्यं, सेसं न भण्णइ। दं.२-११.जहा नेरइया एवं जाव थणियकुमारा। प. दं. १२. पुढविकाइया णं भंते ! जीवा किं किरियावाई जाव वेणइयवाई? उ. गोयमा ! नो किरियावाई, अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, नो वेणइयवाई। एवं पुढविकाइयाणं जं अत्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दो मज्झिल्लाइं समोसरणाइंजाव अणागारोवउत्त त्ति। दं.१३-१९. एवं जाव चउरिंदियाणं, सव्वट्ठाणेसु एयाई चेव मज्झिल्लगाइं दो समोसरणाई। णवर-सम्मत्तनाणेहि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई। दं.२०. पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया जहा जीवा। णवरं-जं अस्थि तं भाणियव्यं । दं.२१.मणुस्सा जहा जीवा तहेव निरवसेसं। दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। -विया. स. ३०, उ. १, सु. २२-३२ ८५. किरियावाईआइ जीव-चउवीसदंडएसु भवसिद्धियत्त- अभवसिद्धियत्त परूवणंप. १. किरियावाई णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया? उ. गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया। प. अकिरियावाई णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया? उ. गोयमा ! भवसिद्धिया वि,अभवसिद्धिया वि। एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। जिस प्रकार जिस क्रम से सामान्य जीवों के सम्बन्ध में कहा है उसी प्रकार और उसी क्रम से नैरयिकों के भी (ग्यारह स्थान) अनाकारोपयुक्त पर्यन्त कहने चाहिए। विशेष-जिसके जो हो वही कहना चाहिए, शेष नहीं कहना चाहिए। दं. २-११. जिस प्रकार नैरयिकों का कथन है, उसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. दं. १२. भंते ! क्या पृथ्वीकायिक जीव क्रियावादी होते हैं यावत् विनयवादी होते हैं? उ. गौतम ! वे क्रियावादी और विनयवादी नहीं होते हैं किन्तु अक्रियावादी और अज्ञानवादी होते हैं। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकों में जो पद संभव हों, उन सभी में अनाकारोपयुक्त पर्यन्त मध्य के दो समवसरण (अक्रियावादी और अज्ञानवादी) कहने चाहिए। दं. १३-१९. इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त सभी स्थानों में मध्य के दो समवसरण कहने चाहिए। विशेष-सम्यक्त्व और ज्ञान में भी ये ही दो मध्य के समवसरण जानने चाहिए। दं. २०. पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान है, विशेष-इनमें भी जिनके जो स्थान हों, वे कहने चाहिए। दं. २१. मनुष्यों का समग्र कथन सामान्य जीवों के समान कहना चाहिए। दं.२२-२४. वाणव्यन्तर,ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए। ८५. क्रियावादी आदि जीव चौबीस दंडकों में भवसिद्धिकत्व और अभवसिद्धिकत्व की प्ररूपणाप. १. भंते ! क्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ? उ. गौतम ! भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं हैं। प्र. भंते ! अक्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं? उ. गौतम ! वे भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी हैं। इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी जीवों के विषय में भी समझना चाहिए। प. २. भंते ! सलेश्य क्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ? उ. गौतम ! वे भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं हैं। प्र. भंते ! सलेश्य अक्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं? उ. गौतम ! वे भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी हैं। इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी भी सलेश्य के समान हैं। इसी प्रकार (कृष्णलेश्यी से) शुक्ललेश्यी पर्यन्त सलेश्य के समान जानना चाहिए। प. २. सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया? उ. गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया। प. सलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावाई किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया? उ. गोयमा ! भवसिद्धिया वि,अभवसिद्धिया वि। एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। एवं जाव सुक्कलेस्सा जहा सलेस्सा।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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