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________________ ९७६ द्रव्यानुयोग-(२) प. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए णं भंते ! भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएहिंतो अणंतर उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्यंगइए णो लभेज्जा। एवं बलदेवत्तं पि। णवर-सक्करप्पभापुढविनेरइए वि लभेज्जा। एवं वासुदेवत्तं दोहितो पुढवीहिंतो वेमाणिएहितो य अणुत्तरोववाइयवज्जेहितो, सेसेसुणो इणढे समठे। मंडलियत्तं-अहेसत्तमा-तेउ-वाउवज्जेहिंतो। -पण्ण.प.२०,सु.१४५९-१४६६ ७७. चउवीसदंडएसुचक्कवट्टि रयणाणमुववाओ १.सेणावइरयणतं, २. गाहावइरयणतं, ३. वड्ढइरयणतं, ४.पुरोहियरयणतं, ५.इत्थिरयणत्तं च एवं चेव, प्र. भंते ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा) चक्रवर्ती पद प्राप्त करता है? उ. गौतम ! कोई चक्रवर्ती प्राप्त करता है और नहीं करता है। इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझ लेना चाहिए। विशेष-शर्कराप्रभा पृथ्वी का नैरयिक भी बलदेव पद प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार वासुदेवत्व दो पृथ्वियों (रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा) से तथा अनुत्तरोपपातिक देवों को छोड़कर शेष वैमानिकों से प्राप्त कर सकता है, किन्तु शेष जीवों में यह अर्थ समर्थ नहीं है। अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक जीवों को छोड़कर शेष जीवों में से निकलकर अनन्तर (सीधा) मनुष्यभव में उत्पन्न जीव मांडलिक (जागीरदार) पद प्राप्त करता है। ७७. चौवीस दंडकों में चक्रवर्ती रत्नों का उपपात १.सेनापति रत्नपद, २. गाथापति (भंडारी) रत्नपद, ३. वर्धकि (सुथार) रलपद, ४. पुरोहित रलपद और ५. स्त्री रत्नपद की प्राप्ति के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष-अनुत्तरोपपातिक देवों को छोड़कर सेनापतिरत्न आदि पद प्राप्त होते हैं। रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर निरन्तर सहस्रार देवलोक के देव पर्यन्त कोई जीव अश्वरत्न एवं हस्तिरल पद प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है। असुरकुमारों से लेकर निरन्तर ईशानकल्प पर्यन्त में से चक्ररल, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरल, असिरत्न, मणिरल एवं काकिणीरत्न की उत्पत्ति होती है। शेष जीवों में से नहीं होती। ७८. भवसिद्धिकों की अंतःक्रिया का काल प्ररूपण कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो एक मनुष्य भव ग्रहण करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। णवर-अणुतरोववाइयवज्जेहिंतो। आसरयणत्तं हत्थिरयणतं च रयणप्पभाओ णिरंतरं जाव सहस्सारो अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो दो भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। चक्करयणत्तं छत्तरयणत्तं चम्मरयणत्तं दंडरयणतं असिरयणतं मणिरयणत्तं कागिणिरयणत्तं एएसि णं असुरकुमारेहितो आरद्धं णिरंतरं जाव ईसाणेहिंतो उववाओ, सेसेहिंतो णो इणढे समठे। -पण्ण.प.२०, दा. ४, सु.१४६७-१४६९ ७८. भवसिद्धियाणं अंतकिरियाकाल परूवणं संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। -सम. सम.१, सु.४६ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। -सम.सम.२,सु.२३ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। -सम. सम. ३,सु. २४ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवग्गहणेहिं सिज्झस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। -सम. सम.४,सु.१८ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।। -सम.सम.५, सु.२२ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। -सम. सम.६.सु.१७ कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीन भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चार भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो पांच भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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