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________________ क्रिया अध्ययन उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए। एवं बाउक्काइए थि प. दं. १५-१६ वणप्फइकाइए णं भंते! वणप्फइकाइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, अंतकिरियं पुण करेज्जा । प. बं. १७-१९ बेइदियतेइंदिय- चउरिदिएणं भंते! बेदिय तेईदिय चउरिदिएहिंतो अनंतर उच्चट्टिता तित्थगरतं लभेज्जा ? प. २०-२३ उ. गोयमा ! णो इणट्ठेसमट्ठे, मणप्पज्जवणाणं पुण उपाडेजा। पंचेदिय-तिरिक्खजोणिय मणूस वाणमंतर जोइसिए णं भंते ! पंचेदियतिरिक्खजोणिय मणूस वाणमंतर जोइसिएहिंतो अनंतरं उत्ता तित्थगरतं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, अंतकिरिचं पुण करेज्जा । प. दं. २४ सोहम्मगदेवे णं भंते ! अनंतरं च चइत्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा, एवं जहा रयणप्पभापुढविनेरइए । एवं जाव सव्वसिद्धगदेवे । - पण्ण. प. २०, सु. १४४४-१४५८ ७६. चउवीसदंडएसु चक्कवट्टिआईणं परूवणं प. रयणप्पभापुढविनेरइए णं भंते! रयणप्पभापुढवि नेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! अत्येगइए लभेज्जा, अत्येगइए णो लभेज्जा । प से केणट्ठेणं भते ! एवं बुच्चइ 'अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा ?' उ. गोयमा ! जहा रयणम्यभापुढवी नेरइयस्स तित्थगरते। प. सक्करप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! सक्करष्पभा पुढविनेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा ? उ. गोवमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । एवं जाव आहेसत्तमापुढविनेरइए । प. तिरिय मणुए णं भंते ! तिरिय मणुएहिंतो अनंतरं उव्यट्टित्ता चक्कवट्टितं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । ९७५ उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह केवलिप्ररूपित धर्म श्रवण प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए। प्र. दं. १५-१६ भंते ! वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिकों में से निकलकर कर क्या अनन्तर (सीधा) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। प्र. दं. १७-१९ मते द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियजीव द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु मनः पर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकता है। प्र. दं. २०-२३ भंते ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देव पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु अन्तक्रिया कर सकता है। प्र. दं. २४ भंते ! सौधर्मकल्प का देव, अपने भव से च्यवन करके क्या अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! कोई प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है। शेष कथन रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्ध विमान के देव पर्यन्त जानना चाहिए। ७६. चौवीसदंडकों में चक्रवर्तित्व आदि की प्ररूपणा प्र. भंते रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा) चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! कोई चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है। प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'कोई चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है ?" उ. गौतम ! जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के नारक को तीर्थकर पद की प्राप्ति के सम्बन्ध में कहा है उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। प्र. भंते! शर्कराप्रभा पृथ्वी का नारक शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा ) चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार अधः सप्तमपृथ्वी के नारक पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भंते! तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्य तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों में से निकल कर क्या अनन्तर (सीधा ) चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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