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________________ ९७४ प से केणट्ठणं भंते! एवं वुच्चइ "अत्येगइए लभेज्जा, अत्येगइए जो लभेज्जा ?" उ. गोयमा ! जस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थगरणाम गोयाई कम्माई बद्धाई पुगाई निघताई कडाई पट्ठवियाई णिविट्ठाई णिविद्वाई अभिनिविड्राई अभिसमण्णागयाई उदिण्णाई णो उवसंताई भवति, " से णं रयणप्पभापुढविनेरइए रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा, जस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थगरणाम- गोयाइं णो बद्धा जाव णो उदिण्णाई उवसंताई भवंति, से णं रयणयभापुढविनेरइए हितो अनंतर उब्यट्टित्ता तित्थगरतं णो लभेज्जा, से तेणडुण गोयमा ! एवं बुच्चइ 'अत्थेगइए लभेज्जा, अत्येगइए णो लभेज्जा ।" एवं जाव वालुयप्यमापुढविनेरइएहिंतो तित्थगरतं सभेजा। प. पंकष्पभापुढविनेरइए णं भंते! पंकयभापुढवि नेरइएहिंतो अनंतर उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, अंतकिरियं पुण करेज्जा । प. धूमप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! धूमप्पभापुढवि नेरइएहितो अनंतर उव्वट्टित्ता तित्थगरतं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, बिरई पुण लभेज्जा । प. तमापुढविनेरइए णं भंते! तमापुढविनेरइएहिंतो अनंतर उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, विरयाविरयं पुण लभेज्जा । प असत्तमा पुढविनेरइए णं भंते! अहेसत्तमा पुढविनेरइएहिंतो अनंतर उब्वङ्गिता तित्थगरतं लभेज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, सम्मत्तं पुण लभेज्जा । प. दं. २- १३ असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? उ. गोवमा ! णौ इणट्ठे समट्ठे, अंतकिरियं पुण करेज्जा । एवं निरन्तरं जाय आउक्काइए प. पं. १४ तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहिंतो अनंतर उव्यट्टित्ता तित्यगरतं लभेज्जा ? द्रव्यानुयोग - (२) प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'कोई तीर्थंकर पद प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है" ? उ. गौतम ! जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक ने तीर्थंकर नाम - गोत्र कर्म बद्ध (बौधा) स्पृष्ट (हुआ) निधत्त (सुदृढ बाँधा ) कृतनिकाचित किया, प्रस्थापित किया निविष्ट स्थित किया) अभिनिविष्ट विशेषरूप से स्थित किया, अभिसमन्वागत किया और उदीर्ण (उदय में आया है) किन्तु उपशान्त नहीं हुआ है। वह रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में से निकलकर अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद को प्राप्त करता है, किन्तु जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक ने तीर्थंकर नामगोत्र कर्म नहीं बांधा यावत् उदय में नहीं आया और उपशान्त है, यह रनप्रभा पृथ्वी का नैरयिक रत्नप्रभापृथ्वी से निकलकर सीधा तीर्थंकर पद प्राप्त नहीं करता है। इसलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि "कोई नैरयिक तीर्थंकर पद प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है।" इसी प्रकार वालुकाप्रभापृथ्वी पर्यन्त के नैरयिकों में से निकल कर सीधा तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ( और कोई नहीं करता है) प्र. भते पंकप्रभापृथ्वी का नारक पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। प्र. भंते ! धूमप्रभापृथ्वी का नारक धूमप्रभापृथ्वी के नारकों में से निकल कर क्या अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह विरति प्राप्त कर सकता है। प्र. भंते ! तमापृथ्वी का नारक तमापृथ्वी के नारकों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह विरताविरति (देश विरति) को प्राप्त कर सकता है। प्र. भंते ! अधः सप्तमपृथ्वी का नारक अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। प्र. पं. २ १३ भंते असुरकुमार देव असुरकुमारों में से निकल ! कर क्या अनन्तर (सीधा) तीर्थकर पद प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। इसी प्रकार निरन्तर अप्कायिक पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. दं. १४ भंते ! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा ) तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ?
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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