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________________ क्रिया अध्ययन ९३५ यावत् पीड़ित किये जाने पर यावत् एक रोम उखाड़े जाने पर हिंसाजनित दुःख और भय का अनुभव करते हैं, वा, आलोडिज्जमाणा वा जाव उदविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खमाणमायमवि विहिंसक्कारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा जावण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णिइए सासए समेच्च लोगं खेत्तण्णेहिं पवेदिते। एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ। से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, नो अंजणं, णो वमणं, णो धूवणित्तिं पि आइए। से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे अमाणे अमाया अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे। एस खलु भगवया अक्खाए संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए या वि भवइ। -सूय.सु.२, अ.४, सु.७४७-७५३ ऐसा जानकर समस्त प्राणियों यावत् सभी सत्वों को नहीं मारमा चाहिए यावत् उन्हें पीड़ित नहीं करना चाहिए। यह (अहिंसा) धर्म ही ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है तथा लोक के स्वरूप को जानने वालों के द्वारा प्रतिपादित है। यह जानकर साधु प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य इन अठारह ही पापस्थानों से विरत होता है। यह साधु दांत साफ करने वाले काष्ठ आदि से दांत साफ न करे, नेत्रों में अंजन (काजल) न लगाए, औषधि लेकर वमन न करे और धूप के द्वारा अपने वस्त्रों या केशों को सुवासित न करे। वह साधु सावधक्रियारहित, हिंसारहित, क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित उपशान्त एवं पाप से निवृत्त होकर रहे। ऐसे साधु को भगवान् ने संयत विरत एवं पापकर्म का निरोधक, प्रत्याख्यान करने वाला अक्रिय (सावध क्रिया से रहित) (संवृत) संवरयुक्त और एकान्तपंडित होता है, ऐसा कहा है। ४९. श्रमण निर्ग्रन्थों में क्रियाओं का प्ररूपण प्र. भंते ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ क्रिया करते हैं? उ. हा, मण्डितपुत्र ! क्रिया करते हैं। प्र. भंते ! श्रमण निर्ग्रन्थ क्रिया कैसे करते हैं? उ. हे मण्डितपुत्र ! प्रमाद से और योगों के निमित्त से क्रिया करते हैं। इस प्रकार निश्चय रूप में श्रमण निर्ग्रन्थ क्रिया करते हैं। ४९. समण-णिग्गंथेसु किरिया परूवणं प. अस्थि णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ? उ. हंता, मंडियपुत्ता ! अत्थि। प. कहं णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ? उ. मंडियपुत्ता ! पमायपच्चया, जोगनिमित्तं च। एवं खलु समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ। -विया. स. ३, उ.३, सु.९-१० ५०. एगसमए एगकिरिया परूवणं प. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेंति ५०. एक समय में एक क्रिया का प्ररूपणप्र. भंते ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि“एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है, यथा एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तं जहा१. सम्मत्तकिरियं च, २.मिच्छत्तकिरियं च, १. जं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ, तं समय मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, २. जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, त समय सम्मत्तकिरियं पकरेइ, सम्मत्तकिरियापकरणयाए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छत्तकिरियापकरणयाए सम्मत्तकिरियं पकरेइ, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तं जहा१. सम्मत्तकिरियं च, २. मिच्छत्तकिरियं च। १. सम्यक्त्व क्रिया और २. मिथ्यात्वक्रिया। १. जिस समय सम्यक्त्वक्रिया करता है उसी समय मिथ्यात्वक्रिया भी करता है, २. जिस समय मिथ्यात्वक्रिया करता है उसी समय सम्यक्त्वक्रिया भी करता है। सम्यक्त्वक्रिया करते हुए मिथ्यात्वक्रिया करता है, मिथ्यात्वक्रिया करते हुए सम्यक्त्व क्रिया करता है। इस प्रकार एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है, यथा १. सम्यक्त्वक्रिया और २. मिथ्यात्वक्रिया।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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