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________________ ९३४ इच्चेव जाणे, णो चेव मणो, णो चेव वई पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिट्ठणयाए परितप्पणयाए ते दुक्खण-सोयण जाव परितप्पण-वह बंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति। इइ खलु ते असण्णिणो वि संता अहोनिसं पाणाइवाए उवक्खाइज्जति जाव अहोनिसं परिग्गहे उवक्खाइज्जंति जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति। से त असण्णिदिद्रुते। सव्वजोणिया वि खलु सत्ता सण्णिणो होच्चा असण्णिणो होति, असिण्णणो होच्चा सण्णिणो होति, होच्चा सण्णी अदुवा असण्णी, तत्थ से अविविचिया अविधूणिया असमुच्छिया अणणुताविया १. सण्णिकायाओ वा सण्णिकार्य संकमंति, २. सण्णिकायाओ वा असण्णिकायं संकमंति, ३. असण्णिकायाओ वा सण्णिकार्य संकमंति, ४. असण्णिकायाओ वा असण्णिकायं संकमंति। जे एए सण्णी वा, असण्णी वा सव्वे ते मिच्छायारा निच्चं पसढविओवातचित्तदंडा,तं जहा१. पाणाइवाए जाव १८ मिच्छादसणसल्ले। __ द्रव्यानुयोग-(२) ) इस प्रकार यद्यपि असंज्ञी जीवों के मन नहीं होता और न ही वाणी होती है तथापि वे (अप्रत्याख्यानी होने से) समस्त प्राणियों यावत् सत्वों को दुःख देने, शोक उत्पन्न करने, विलाप कराने, रुलाने, पीड़ा देने, वध करने तथा परिताप देने, उन्हें एक साथ दुःख शोक यावत् संताप वध-बन्धन परिक्लेश आदि करने से विरत नहीं होते (अपितु पापकर्म में सदा रत रहते हैं) इस प्रकार वे प्राणी असंज्ञी होते हुए भी अहर्निश प्राणातिपात यावत् परिग्रह में तथा मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त के समस्त पापस्थानों में प्रवृत्त कहे जाते हैं. यह असंज्ञी का दृष्टान्त है। सभी योनियों के प्राणी निश्चितरूप से संज्ञी-असंज्ञी पर्याय में उत्पन्न हो जाते हैं तथा असंज्ञी होकर संज्ञी (पर्याय में उत्पन्न) हो जाते हैं। वे संज्ञी या असंज्ञी होकर यहाँ पापकर्मों को अपने से अलग न करके (तप आदि से) उनकी निर्जरा न करके (प्रायश्चित्त आदि से) उनका उच्छेद न करके, उनकी आलोचना आदि न करके१. संज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर में संक्रमण करते हैं, २. संज्ञी के शरीर से असंज्ञी के शरीर में संक्रमण करते हैं, ३. असंज्ञी से संज्ञीकाय में संक्रमण करते हैं, ४. असंज्ञीकाय से असंज्ञीकाय में संक्रमण करते हैं। जो ये संज्ञी या असंज्ञी प्राणी हैं, वे सब मिथ्याचारी हैं और सदैव शठतापूर्ण हिंसात्मक चित्तवृत्ति वाले हैं। अतएव वे प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त अठारह ही पापस्थानों का सेवन करने वाले हैं। इसी कारण से भगवान् ने इन्हें असंयत, अविरत, पापों का प्रतिघात (नाश) और प्रत्याख्यान न करने वाले अशुभक्रियायुक्त संवररहित, एकान्तहिंसक, एकान्तबाल (अज्ञानी) और एकान्त (भावनिद्रा) में सुप्त कहा है। वह अज्ञानी (अप्रत्याख्यानी) जीव भले ही मन, वचन,काय और वाक्य का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो तथा (हिंसा का) स्वप्न भी न देखता हो, फिर भी पापकर्म (का बंध) करता है। (इस स्पष्टीकरण को सुनकर प्रश्नकर्ता ने) जिज्ञासा बताई तब मनुष्य क्या करता हुआ, क्या कराता हुआ तथा कैसे संयत, विरत तथा पापकर्म का निरोधक और प्रत्याख्यान करने वाला होता है? आचार्य ने कहा-इस विषय में भगवान् ने पृथ्वीकाय से त्रसकाय पर्यन्त षड्जीव निकायों को (संयत अनुष्ठान का) कारण बताया है। जैसे कि मैं किसी व्यक्ति द्वारा डंडे से मारा जाऊँ, तर्जित किया जाऊँ, ताड़ित किया जाऊँ यावत् हड्डियों से, मुक्कों से, ढेले से या ठीकरे से पीड़ित किया जाऊँ यावत् मेरा एक रोम उखाड़ा जाए तो मैं हिंसाजनित दुःख भय और असाता का अनुभव करता हूँ इसी तरह ऐसा जानो कि समस्त पीड़ित प्राणी यावत् सभी सत्व भी डंडे यावत् ठीकरे से मारे जाने पर एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए-अविरएअप्पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियार-मण-वयण-काय-वक्के, सुविणमवि अपासओ पावे य से कम्मे कज्जइ। चोयग-से-किं-कुव्वं-कि-कारवं-कहं पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे भवइ? संजय-विरय आयरिय आह-तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता,तं जहा१.पुढविकाइया जाव ६.तसकाइया, से जहानामए मम अस्सायं दंडेण वा, अट्ठीण वा, मुट्ठीण वा, लेलूण वा, कवालेण वा, आतोडिज्जमाणस्स वा, हम्ममाणस्स वा, तज्जिज्जमाणस्स वा, ताडिज्जमाणस्स वा जाव उद्दविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खमा णमायमवि विहिंसक्कारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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