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________________ ९३३ क्रिया अध्ययन जेसिंणो पत्तेयं-पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविओवातचित्तदंडे, पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले। आयरिए आह तत्थ खलु भगवया दुवे दिळंता पण्णत्ता, तं जहा१. सन्निदिळेंते य २. असण्णिदिटुंते य। प. १.से किं तं सण्णिदिटुंते? उ. सण्णिदिळेंते जे इमे सण्णिपंचिंदिया पज्जत्तगा एएसिणं छज्जीवनिकाए पडुच्च, तं जहा-पुढविकायं जाव तसकायं, से एगइओ पुढविकाएणं किच्चं करेइ वि, कारवेइ वि, तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं पुढविकाएणं किच्चं करेमि वि, कारवेमि वि, णो चेव णं से एवं भवइ इमेण वा-इमेण वा, से य तेणं पुढविकाएणं किच्चं करेइ वि, कारवेइ वि, से य ताओ पुढविकायाओ असंजय-अविरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे या वि भवइ। एवं जाव तसकायाओ त्ति भाणियव्यं, से एगइओ छहिं जीवनिकाएहिं किच्चं करेइ वि, कारवेइ वि, तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु छहिं जीवनिकाएहिं किच्चं करेमि वि, कारवेमि वि; णो चेव णं से एवं भवइइमेहिं वा,इमेहिं वा,से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं किच्चं करेइ वि, कारवेइ वि, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं असंजय-अविरय-अपडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे पाणाइवाए जाव मिच्छादसण्सल्ले। इस कारण ऐसे प्राणियों में से प्रत्येक प्राणी के प्रति हिंसामय चित्त रखते हुए दिन-रात सोते-जागते उनका अमित्र (शत्रु) भाव बना रहना तथा उनके साथ मिथ्या व्यवहार करने में संलग्न रहना मिथ्यादर्शनशलय पर्यन्त के पापों में ऐसे प्राणियों का लिप्त रहना भी सम्भव नहीं है। आचार्य ने उत्तर दिया इस विषय में भगवान् ने दो दृष्टान्त दिये हैं, यथा१. संजीदृष्टान्त २. असंज्ञीदृष्टान्त। प्र. १. संज्ञी दृष्टान्त क्या है? उ. संज्ञी का दृष्टान्त इस प्रकार है-जो ये संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव है, इनमें पृथ्वीकाय से त्रसकाय पर्यन्त षड्जीव निकाय के जीवों में यदि कोई पुरुष पृथ्वीकाय से ही अपना (आहारादि) कृत्य करता है या कराता है तो उसके मन में ऐसा विचार होता है कि-'मैं पृथ्वीकाय से अपना कार्य करता भी हूँ और कराता भी हूँ किन्तु उसे उस समय ऐसा विचार नहीं होता कि-इससे या इस (अमुक) पृथ्वी से ही कार्य करता हूँ या कराता हूँ इसलिए वह व्यक्ति पृथ्वीकाय का असंयमी, उससे अविरत तथा हिंसा का निरोधक और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है। इसी प्रकार त्रसकाय तक के जीवों के विषय में कहना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति छह काय के जीवों से कार्य करता है और कराता भी है तो वह यही विचार करता है कि-मैं छह काय के जीवों से कार्य करता हूँ और कराता भी हूँ, उस व्यक्ति को ऐसा विचार नहीं होता कि वह इन या इन जीवों से ही कार्य करता है और कराता है (सबसे नहीं) क्योंकि वह सामान्य रूप से-उन छहों जीवनिकायों से कार्य करता है और कराता भी है। इस कारण वह प्राणी उन छहों जीवनिकायों के जीवों की हिंसा से असंयत अविरत और उनकी हिंसा आदि से जनित पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है। इस कारण वह प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य तक के सभी पापों का सेवन करता है। भगवान् ने ऐसे प्राणी को असंयत, अविरत, पापकर्मों का (तपआदि से) नाश तथा प्रत्याख्यान से निरोध न करने वाला कहा है, चाहे वह प्राणी स्वप्न भी न देखता हो तो भी वह पापकर्म का (बंध करता है)। यह संज्ञी का दृष्टान्त है। प्र. असंज्ञीदृष्टान्त क्या है? उ. असंज्ञी का दृष्टान्त इस प्रकार है-पृथ्वीकायिक जीवों से वनस्पतिकायिक जीवों एवं छठे जो त्रस संज्ञक अमनस्क जीव हैं वे असंज्ञी हैं, जिनमें न तर्क है, न संज्ञा है, न प्रज्ञा (बुद्धि) है,न मन है,न वाणी है और जो न स्वयं कर सकते हैं. न ही दूसरों से करा सकते हैं और न करते हुए को अच्छा समझ सकते हैं, तथापि वे अज्ञानी प्राणी समस्त प्राणियों यावत् सत्वों के दिन-रात सोते या जागते हर समय शत्रुभूत होकर मिथ्या व्यवहार करने वाले होते हैं। उनके प्रति सदैव हिंसात्मक चित्तवृत्ति रखते हैं, इसी कारण वे प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त अठारह ही पापस्थानों में सदा लिप्त रहते हैं। एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए-अपडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे, सुविणमवि अपस्सओ पावे य कम्मे से कज्जइ, सेत्तं सण्णिदिळेंते। प. से किं तं असण्णिदिद्रुते? उ. असण्णिदिळंते जे इमे असण्णिओ पाणा, पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा वेगइया तसा पाणा, जेसिं णो तक्का इ वा, सण्णा इ वा, पण्णा इ वा, मणे इ वा, वई इ वा, सयं वा करणाए, अण्णेहिं वा कारवेत्तए, करेंतं वा समणुजाणित्तए, ते वि णं बाला सव्वेसिं पाणाणं जाव सव्वेसिं सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूया मिच्छासंठिया निच्चं पसढविओवातचित्तदंडा, पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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