SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रिया-अध्ययन जैनदर्शन में 'क्रिया' एक पारिभाषिक शब्द है। इसका सम्बन्ध मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति रूप 'योग' से है। जब तक जीव में योग विद्यमान है तब तक उसमें क्रिया मानी गई है। जब जीव अयोगी अवस्था अर्थात् शैलेशी अवस्था को अथवा सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो वह अक्रिय हो जाता है। इसका तात्पर्य है कि बिना योग के क्रिया नहीं होती है। क्रिया का कारण अथवा माध्यम योग है। ___ व्याकरणदर्शन में सिद्ध अथवा असिद्ध द्रव्य की साध्यावस्था को क्रिया कहा गया है। साधारणतः हम किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए जो प्रवृत्ति करते हैं, उसे क्रिया कहते हैं। वह क्रिया जीव में भी हो सकती है और अजीव में भी, किन्तु जैनदर्शन की पारिभाषिक क्रिया का सम्बन्ध जीव से है। जीव अपनी क्रिया से अजीव में यथासम्भव हलन-चलन कर सकता है, तथापि तात्त्विक दृष्टि से क्रिया का फल जीव को मिलता है, इसलिए जीव में ही क्रिया मानी गई है। स्थानांग सूत्र में यद्यपि क्रिया के दो प्रकार कहे गए हैं-जीव क्रिया और अजीव क्रिया। किन्तु अजीव क्रिया के ऐपिथिकी और साम्परायिकी नाम से जो दो भेद किए गए हैं वे जीव से ही सम्बद्ध हैं, अजीव से नहीं। कषाय की उपस्थिति में जो क्रिया होती है वह साम्परायिकी तथा कषाय रहित अवस्था में जो क्रिया होती है वह ऐर्यापथिकी कही जाती है। इसका तात्पर्य है कि क्रिया कषाय निरपेक्ष है। उसका कषाय के होने न होने से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध योग के होने न होने से है। आगमों में क्रिया का विविध प्रकार से विभाजन उपलब्ध होता है। स्थानांग सूत्र में क्रिया को दो प्रकार की कहते हुए दसों विभाजन किए गए हैं। कुछ विभाजन इस प्रकार के हैं, जिनका समावेश क्रिया के पाँच भेदों, तेरह भेदों अथवा पच्चीस भेदों में हो जाता है। इसमें जीवक्रिया के जो दो भेद किए गए हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं--१. सम्यक्त्व क्रिया, २. मिथ्यात्व क्रिया। सम्यक्त्वपूर्वक की गई क्रिया सम्यक्त्व क्रिया तथा मिथ्यात्वी की क्रिया को मिथ्यात्व क्रिया कह सकते हैं। क्रिया में राग एवं द्वेष निमित्त बनते हैं, इसलिए क्रिया के दो भेद ये भी हैं-१. प्रेयः प्रत्यया (रागजन्या) और २. द्वेष प्रत्यया। फिर प्रेयः प्रत्यया को माया एवं लोभ के रूप में तथा द्वेष प्रत्यया को क्रोध एवं मान के रूप में विभक्त किया गया है। जिस निमित्त, हेतु, फल अथवा साधन से क्रिया की जाती है उसी निमित्त, हेतु साधन अथवा फल के आधार पर क्रिया का नामकरण कर दिया जाता है। इसीलिए क्रिया के अनेक विभाजन हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति , प्रज्ञापना, स्थानांग, समवायांग आदि सूत्रों में क्रिया के पाँच प्रकार ये कहे गए हैं-१. कायिकी, २. आधिकरणिकी, ३. प्राद्वेषिकी, ४. पारितापनिकी और ५.प्राणातिपातिकी। जिस क्रिया में काया की प्रमुखता हो उसे कायिकी क्रिया कहते हैं। जो क्रिया शस्त्र आदि उपकरणों की सहायता से की जाती है उसे आधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। जो क्रिया द्वेषपूर्वक की जाती है उसे प्राद्वेषिकी, जो क्रिया दूसरे प्राणियों को कष्टकारी हो उसे पारितापनिकी तथा दूसरे प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाली क्रिया को प्राणातिपातिकी क्रिया कहते हैं। जीव के चौबीस ही दण्डकों में ये पाँचों प्रकार की क्रियाएँ पायी जाती हैं। यह अवश्य है कि जिस समय जीव कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया से कोई जीव स्पृष्ट होता है तथा कोई नहीं होता। इन पाँच क्रियाओं में प्रारम्भ की तीन क्रियाओं कायिकी, आधिकरणिकी एवं प्राद्वेषिकी में सहभाव है, अर्थात् ये तीन क्रियाएँ नियमतः साथ होती हैं, किन्तु पारितापनिकी एवं प्राणातिपातिकी क्रियाओं का इनसे सहभाव नियत नहीं है। कदाचित् ये साथ होती हैं और कदाचित् नहीं। यह निर्धारित है कि जब प्राणातिपातिकी क्रिया होती है तो उस जीव के पूर्व की चारों क्रियाएँ होती हैं, किन्तु पारितापनिकी क्रिया के होने पर प्राणातिपातिकी क्रिया का होना आवश्यक नहीं है। शेष तीन क्रियाएँ होती हैं। इन क्रियाओं के सहभाव पर प्रस्तुत अध्ययन में जीव, समय, देश एवं प्रदेश की एकता के आधार पर चार बिन्दुओं से विचार किया गया है। कायिकी आदि ये पाँचों क्रियाएँ जीव को संसार से जोड़ने वाली होने के कारण आयोजिका क्रियाएं कही गई हैं। एक अन्य विभाजन के अनुसार पाँच क्रियाएँ ये हैं-१. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यान क्रिया और ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। इनमें से आरम्भिकी क्रिया प्रमाद की उपस्थिति में होती है. आरम्भयुक्त अथवा हिंसायुक्त क्रिया को आरम्भिकी क्रिया कहते हैं। परिग्रहपूर्वक की गई क्रिया पारिग्रहिकी होती है। माया के निमित्त से की गई क्रिया माया प्रत्यया है। अप्रत्याख्यानी जीव की अविरति के कारण होने वाली क्रिया अप्रत्याख्यान क्रिया कहलाती है तथा मिथ्यात्व के कारण उत्पन्न क्रियाएँ मिथ्यादर्शन प्रत्यया कही गयी है मिथ्यादृष्टि जीवों में ये पाँचों क्रियाएँ पायी जाती हैं तथा सम्यग्दृष्टि जीवों में मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया को छोड़कर चारों क्रियाएँ पायी जाती हैं। इन पाँचों क्रियाओं के सहभाव का नियम भिन्न है। जिस जीव में मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया पाई जाती है, उसमें शेष चारों क्रियाएँ निश्चित रूप से होती हैं। जिसमें अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसमें मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया वैकल्पिक रूप से होती है किन्तु शेष तीनों क्रियाएँ उसमें होती है। मायाप्रत्यया क्रिया वाले के शेष चारों क्रियाएँ वैकल्पिक रूप से होती हैं। जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके आरम्भिकी एवं मायाप्रत्यया क्रिया निश्चित रूप से होती है, किन्तु शेष दो क्रियाएँ वैकल्पिक होती हैं। आरम्भिकी क्रिया के साथ मायाप्रत्यया क्रिया नियम से होती है, किन्तु शेष तीन क्रियाएँ कदाचित् होती हैं तथा कदाचित् नहीं। चौबीस दण्डकों में किसके कितनी क्रियाएँ होती हैं इसका इस अध्ययन में निर्देश है। अठारह पाप स्थानों में प्रत्येक से विरत जीव किस प्रकार की क्रियाएँ करता है इसका भी इस अध्ययन में उल्लेख हुआ है ___ आरम्भिकी आदि क्रियाओं में सबसे अल्प मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रियाएँ हैं, उनसे अप्रत्याख्यान, पारिग्रहिकी एवं आरम्भिकी क्रियाएँ उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं तथा मायाप्रत्यया क्रियाएँ सबसे अधिक हैं। क्रियाओं के पंचविध होने का निरूपण अन्य प्रकारों से भी हुआ है, यथा-१. दृष्टि-विकार जन्य क्रिया, २. स्पर्श सम्बन्धी, ३. बाहर के निमित्त से उत्पन्न, ४. समूह से होने वाली, ५. अपने हाथ से होने वाली। दूसरा प्रकार है-१. बिना शस्त्र के होने वाली क्रिया, २. आज्ञा देने से होने वाली क्रिया. ३.छेदन भेदन जन्य क्रिया,४. अज्ञानता से होने वाली क्रिया और ५. बिना आकांक्षा के होने वाली क्रिया। ये सभी क्रियाएँ नैरयिकों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त २४ दण्डकों में पाई जाती है। मनुष्यों में पाँच प्रकार की क्रियाएँ इस प्रकार निरूपित हैं-१. रागभाव-जन्य क्रिया, २. द्वेषभाव जन्य क्रिया, ३.मन आदि की दुष्चेष्टाओं से जन्य क्रिया, ४. सामूहिक रूप से होने वाली क्रिया और ५. गमनागमन से होने वाली क्रिया। (८९६ )
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy