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________________ क्रिया अध्ययन ८९७ पाँच क्रियाएँ ये भी हैं-१. प्राणिातिपात क्रिया,२. मृषावाद क्रिया, ३. अदत्तादान क्रिया. ४. मैथुन क्रिया और ५. परिग्रह क्रिया। ये पाँचों क्रियाएँ स्पृष्ट हैं, आत्मकृत हैं तथा आनुपूर्वीकृत हैं। ये पाँचों क्रियाएँ आम्रव के भेदों में भी समाहित हैं। ____क्रिया से आम्नव होता है। आम्रव के अनन्तर कर्म-बन्ध होता है। यदि क्रिया कषाय युक्त है तो बन्द अवश्य होता है और यदि क्रिया कषाय रहित है तो मात्र आम्रव होता है, बन्ध नहीं। ___ यही कारण है कि दो प्रकार के क्रिया स्थान होते हैं-१. धर्मस्थान और २. अधर्म स्थान। धर्मयुक्त क्रिया धर्मस्थान की द्योतक है तथा अधर्मपूर्वक की गई क्रिया अधर्मस्थान की बोधक है। उत्तराध्ययन सूत्र में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति आदि क्रियाओं में रुचि होने को क्रिया रुचि कहा है। क्रिया शब्द एक प्रकार से चारित्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' के अन्तर्गत क्रिया शब्द चारित्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार ज्ञान के आचरण रूप जो चारित्र है वह धर्मस्थान क्रिया है, शेष सब क्रियाएँ अधर्मस्थान के अन्तर्गत आती हैं। अधर्म स्थान रूप में १३ क्रिया स्थान कहे गए हैं, यथा-१. अर्थदण्ड, २. अनर्थदण्ड, ३. हिंसादण्ड, ४. अकस्मात् दण्ड, ५. दृष्टिविपर्यास दण्ड, ६. मृषाप्रत्ययिक,७. अदत्तादान प्रत्ययिक,८. अध्यात्म प्रत्ययिक (दुश्चिन्तन वाली), ९. मान प्रत्ययिक, १०. मित्रद्वेषप्रत्ययिक, ११.मायाप्रत्ययिक, १२. लोभप्रत्ययिक और १३. ईर्यापथिक। इनमें से प्रारम्भ के ५ भेदों में जो दण्ड शब्द है वह क्रिया का ही बोधक है। ईर्यापथिक क्रिया के अतिरिक्त अन्य क्रियाओं में कषाय या प्रमाद की विद्यमानता है। इन तेरह क्रिया स्थानों का इस अध्ययन में उदाहरण देकर विस्तार से निरूपण हुआ है। अधर्मपक्षीय दार्शनिकों एवं चिन्तकों के मतों का भी खण्डन किया गया है। यह प्रतिपादित किया गया है कि जो श्रमण-ब्राह्मण यह मानते हैं कि सब प्राण यावत् सत्वों का हनन किया जा सकता है। अधीन बनाया जा सकता है, दास बनाया जा सकता है, परिताप दिया जा सकता है, क्लान्त किया जा सकता है और प्राणों से वियोजित किया जा सकता है, वे अनेक दुःखों के भागी होंगे। तेरहवें ईर्यापथिक क्रियास्थान को धर्मपक्षीय क्रिया स्थान माना गया है। इसके अन्तर्गत अणगार पाँच समितियों से समित होता है, तीन गुप्तियों से गुप्त होता है, ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ से युक्त होता है, उपयोग पूर्वक बैठता है, खड़ा होता है अथवा प्रत्येक क्रिया उपयोगपूर्वक करता है वह ईपिथिक क्रिया करता है। इस तेरहवें क्रिया स्थान से ही प्रत्येक जीव सिद्ध होता है। इनकी विचारधारा अधर्म पक्षीय चिन्तकों एवं दार्शनिकों से विपरीत होती है। ये किसी जीव का हनन करना, उसे अधीन बनाना, दास बनाना, परिताप देना आदि क्रियाओं के त्यागी होते हैं। ये समस्त दुःखों का अन्त कर लेते हैं। इसके अनन्तर अक्रिया की स्थिति बनती है। अक्रिया का फल सिद्धि प्राप्त करना है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के अन्तर्गत क्रिया सम्बन्धी अनेक प्रश्न हैं, जिनका उत्तर भगवान् महावीर देते हैं। एक प्रश्न है जयन्ती का-भन्ते ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जागृत रहना अच्छा है ? भगवान् ने उत्तर दिया-जयन्ती ! जो अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्म से आजीविका करने वाले जीव हैं, उनका सुप्त रहना अच्छा है तथा जो धार्मिक हैं, धर्मानुसारी यावत् धर्म से ही आजीविका चलाने वाले हैं, उन जीवों का जागृत रहना अच्छा है। कोई पुरुष किसी त्रस जीव को मारता है तो क्या उस समय अन्य प्राणियों को भी मारता है? भगवान का उत्तर हाँ में जाता है, क्योंकि वह मारने की क्रिया करते समय तक अन्य त्रस प्राणियों को भी मारता है। धनुष चलाने वाले पुरुष को कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी तक की कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? भगवान उत्तर देते हैं कि जब पुरुष धनुष को ग्रहण करता है यावत् प्राणियों को जीवन से रहित कर देता है तब वह कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी रूप पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यही नहीं जिन जीवों के शरीरों से वह धनुष निष्पन्न हुआ है वे जीव भी कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। यह तथ्य चौंकाने वाला है, क्योंकि मृत्यु को प्राप्त जीव अपने निर्जीव चर्म से किस प्रकार कर्माम्रव करता है, यह विचारणीय बिन्दु है। ऐसे ही अनेक रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक प्रश्न इस अध्ययन में समाहित हैं। चौबीस दण्डकों में एक जीव एक जीव की अपेक्षा कदाचित् तीन, चार या पाँच क्रियाओं वाला तथा कदाचित् अक्रिय होता है। एक जीव अनेक जीवों की अपेक्षा, अनेक जीव एक जीव की अपेक्षा, और अनेक जीव अनेक जीवों की अपेक्षा भी इसी प्रकार तीन, चार या पाँच क्रियाओं वाले अथवा अक्रिय होते हैं। पाँच शरीरों की अपेक्षा भी चौबीस दण्डकों में क्रियाओं का निरूपण हुआ है। ___अठारह पापों की संख्या अठारह क्रियाओं के रूप में वर्णित हैं। ये अठारह क्रियाएँ प्राणातिपात, मृषावाद आदि से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य पर्यन्त हैं। इन क्रियाओं का निरूपण करते समय प्रश्न किया गया-एक जीव प्राणातिपात क्रिया से कितनी कर्म प्रकृतियां बाँधता है? उत्तर में कहा गया-सात या आठ कर्म प्रकृतियाँ बाँधता है। आयुष्य कर्म का बन्ध करने पर आठ अन्यथा सात कर्मों का बन्ध करता है। इसी प्रकार मृषावाद से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक सात या आठ कर्मों का बन्ध होता है। जिस प्रकार अठाहर पाप क्रियाओं में प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार उनसे विरमण भी किया जा सकता है। क्रिया के २५ भेद भी मिलते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में २५ क्रियाएँ कही गई हैं। पं. सुखलाल जी ने उन्हें इस प्रकार गिनाया है-सम्यक्त्व क्रिया, २. मिथ्यात्व क्रिया, ३. प्रयोग क्रिया, ४. समादान क्रिया, ५. ईर्यापथ क्रिया, ६. कायिकी, ७. आधिकरणिकी, ८. प्राद्वेषिकी, ९. पारितापनिकी, १०. प्राणातिपातिकी, ११. दर्शन क्रिया, १२. स्पर्शन क्रिया, १३. प्रात्ययिकी क्रिया, १४. समन्तानुपातन क्रिया, १५. अनाभोग क्रिया, १६. स्वहस्त क्रिया, १७.निसर्ग क्रिया, १८.विदार क्रिया, १९. आज्ञा व्यापादिकी क्रिया, २०.अनवकांक्ष क्रिया, २१. आरम्भ क्रिया, २२. पारिग्रहिकी, २३. माया प्रत्यया, २४. मिथ्यादर्शन प्रत्यया, २५. अप्रत्याख्यान क्रिया। प्रायः इन पच्चीस क्रियाओं का समावेश इस अध्ययन में क्रिया के निरूपित विभिन्न विभाजनों में हो गया है। इस अध्ययन में क्रिया का व्यापक विवेचन हुआ है। कर्म, आम्रव, योग, बन्ध और कषाय के साथ क्रिया का क्या एवं कितना सम्बन्ध है, इसे अध्ययन का अनुशीलन करने के अनन्तर अच्छी तरह समझा जा सकता है। संसार का अन्त करने वाली क्रिया को अन्तक्रिया कहा गया है, इसका चार प्रकार से निरूपण है। अन्त में यह कहा जा सकता है क्रिया दोनों प्रकार की होती है-धर्मस्थान रूप भी एवं अधर्मस्थान रूप भी। अधर्मपरक क्रिया का त्याग कर धर्मपरक क्रिया अपनाने में ही मुक्ति का मार्ग निहित है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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