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________________ ८६६ द्रव्यानुयोग-(२) पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प, तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् भुज्जो-भुज्जो परिणमइ। उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है। प. १-से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्स, काउलेस्सं, प्र. १. भंते ! क्या कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेउलेस्सं, पम्हलेस, सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए, तेजोलेश्या, पदुमलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए, ताफासत्ताए के रूप में, उन्हीं के वर्ण रूप में, उन्हीं के गन्धरूप में, उन्हीं के भुज्जो-भुज्जो परिणमइ? रसरूप में, उन्हीं के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है? उ. हंता, गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं उ. हां, गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को पप्प तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए, प्राप्त होकर उन्हीं के रूप में, उन्हीं के वर्ण रूप में, उन्हीं के गंध ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ। रूप में, उन्हीं के रस रूप में और उन्हीं के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि“कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पप्प "कृष्णलेश्या नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ?" होकर उन्हीं के रूप में यावत् उन्हीं के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है? उ. गोयमा ! से जहाणामए वेरुलियमणी सिया किण्णसुत्तए उ. गौतम ! जैसे कोई वैडूर्यमणि काले सूत्र में या नीले सूत्र में, वा, णीलसुत्तए वा, लोहियसुत्तए वा, हालिद्दसुत्तए वा, लाल सूत्र में या पीले सूत्र में अथवा श्वेत सूत्र में पिरोने पर सुकिल्लसुत्तए वा आइए समाणे तारूवत्ताए जाव वह उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ। परिणत हो जाती है, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पप्प "कृष्णलेश्या नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ।" होकर उन्हीं के रूप में यावत् उन्हीं के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है।" प. २. से गुणं भंते ! णीललेस्सा किण्हलेस्सं जाव सुक्कलेस्सं प्र. २. भंते ! क्या नीललेश्या कृष्णलेश्या को यावत् शुक्ललेश्या पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो को प्राप्त कर उन्हीं के रूप में यावत उन्हीं के स्पर्श रूप में परिणमइ? परिणत हो जाती है? उ. हंता,गोयमा ! एवं चेव। उ. हां, गौतम ! पूर्ववत् (परिणत होती) है। ३. एवं काउलेस्सा कण्हलेस्सं, णीललेस्सं, तेउलेस्स, ३. इसी प्रकार कापोतलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, पम्हलेस्स,सुक्कलेस्स। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है। ४. एवं तेउलेस्सा कण्हलेस, णीललेस्सं, काउलेस्सं, ४. इसी प्रकार तेजोलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या पम्हलेस्स,सुक्कलेस्स। कापोतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है। ५. एवं पम्हलेस्सा कण्हलेस्सं, णीललेस्स, काउलेस्सं, ५. इसी प्रकार पद्मलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, तेउलेस्सं, सुक्कलेस्स। कापोतलेश्या, तेजोलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है। प. ६. से णूणं भंते ! सुक्कलेस्सा कण्हलेस्स, णीललेस्सं, प्र. ६. क्या शुक्ललेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, काउलेस्सं, तेउलेस्स, पम्हलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव तेजोलेश्या, और पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ ? यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है? उ. हता, गोयमा ! एवं चेवा' उ. हां, गौतम ! परिणत होती है। -पण्ण.प.१७, उ.४, सु. १२२०-१२२५ २४. दव्वलेस्साणं परप्पर परिणमणं २४. द्रव्यलेश्याओं का परस्पर परिणमनप. से किं तं भंते ! लेस्सागइ? प्र. भंते ! लेश्यागति किसे कहते हैं ? १. (क) विया. स. ४, उ.१०, सु.१ (ख) विया. स. १९, उ.१, सु.२ (ग) पण्ण. प.१७, उ.५, सु. १२५१
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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