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________________ लेश्या अध्ययन वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा। एवं जोइसिय-वेमाणिया वि सेसं तं चैव । एवं पम्हलेस्सा वि भाणियव्वा । णवरं - जेसिं अस्थि । सुक्कलेस्सावि तहेव, जेसि अस्थि सव्वं तहेव जहा ओहिया णं गमओ। नवरं - पम्हलेस्स- सुकलेस्साओ पंचेदियतिरिक्खजोणियमाणूस - बेमाणियाण एवं चैव। साण त्ति । २३. लेस्साणं विविहविवक्खया परिणमन परूवणंप. कण्डलेस्सा णं भंते! कविहा परिणामं परिणमड ? - पण्ण. प. १७, उ. १, सु. ११४६-११५५ " 7 उ. गोयमा ! तिविहं या नवविहं वा सत्तावीसइविहं वा, एक्कासीइविहं वा, बे तेयलिसयविहं वा, बहुं वा, बहुविहं या परिणामं परिणमह ।' एवं जाव सुक्कलेस्सा। - पण्ण. प. १७, उ. ४, सु. १२४२ प. से णूण भंते! कण्हलेस्सा णीललेस्स पप्प तारूयत्ताए, तावण्णत्ताए तागंधताए, तारसत्ताए, ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणम ? उ. हंता, गौयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्स पप्प तारूवत्ताए. तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारससत्ताए, ताफासत्ताए भुज्जो - भुज्जो परिणमइ । प. से केणट्ठेण भंते! एवं बुच्चइ 'कण्हलेस्सा णीललेस्स पप्प तारूयत्ताए जाब ताफासत्ताए भुज्जो - भुज्जो परिणमइ ? उ. गोयमा ! ते जहाणामए खीरे दूसिं पप्प, सुद्धे वा चल्थे रागं पम्प तारूयत्ताए तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए. ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमद्द। से तेणट्ठेण गोयमा ! एवं बुच्चइ "कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्य तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ ।" एवं एएणं अभिलावेणंगीललेस्सा काउलेस्सं पप्प काउलेस्सा तेउलेस्स पप्प तेउलेस्सा पहलेस्स पप्य, १. उत्त. अ. ३४, गा. २० ८६५ तेजोलेश्यी वाणव्यन्तरों का कथन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। शेष सात द्वार पूर्ववत् हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्या वालों के सात द्वार कहने चाहिए। विशेष- जिन के पद्मलेश्या हो उन्हीं में उसका कथन करना चाहिए। शुक्ललेश्या वालों का कथन भी उसी प्रकार है, वह जिनके हो उनके औधिक के समान सात द्वार कहने चाहिए। विशेष-पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और वैमानिकों में ही होती है, शेष जीवों में नहीं होती। २३. लेश्याओं का विविध अपेक्षाओं से परिणमन का प्ररूपणप्र. भंते! कृष्णलेश्या कितने प्रकार के परिणामों में परिणत होती है ? , उ. गौतम ! कृष्णलेश्या तीन प्रकार के नौ प्रकार के सत्ताईस प्रकार के, इक्यासी प्रकार के या दो सौ तेतालीस प्रकार के अथवा बहुत से या बहुत प्रकार के परिणामों में परिणत होती है। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक के परिणामों का भी कथन करना चाहिए। प्र. भंते! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में, उसी के वर्णरूप में, उसी के गंध रूप में, उसी के रसरूप में, उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? उ. हां, गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में, उसी के वर्णरूप में, उसी के गंध रूप में, उसी के रस रूप में, उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है। प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त करके उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? उ. हां, गौतम ! जैसे (छाछ आदि खटाई का) जावण पाकर दूध, अथवा शुद्ध वस्त्र रंग पाकर उसके रूप में, उसी के वर्ण-रूप में, उसी के गन्ध-रूप में, उसी के रस-रूप में और उसी के स्पर्श-रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि"कृष्णलेश्या नीललेश्या को पाकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है।" इसी कथन के अनुसार नीलेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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