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________________ लेश्या अध्ययन उ. गोयमा ! लेस्सागइ जण्णं कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ एवं नीललेस्सा काउलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए परिणमइ, एवं काउलेस्सा वि तेऊलेस्सं, तेऊलेस्सा वि पम्हलेस्स, पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए परिणमइ, से तं लेस्सागइ। -पण्ण. प.१६, सु.१११६ २५. आगारभावाइ मायाए लेस्साणं परप्परं अपरिणमनंप. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए, णो तावण्णत्ताए, णो तागंधत्ताए, णो तारसत्ताए, णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ? उ. हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए, णो तावण्णत्ताए, णो तागंधत्ताए, णो तारसत्ताए, णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ। प. सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ? उ. गोयमा ! आगारभावमायाए वा, से सिया पलिभागभावमायाए वा, से सिया कण्हलेस्साणं वा, णो खलु साणीललेस्सा तत्थ गया उस्सक्कइ, वा से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइकण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ। प. से णूणं भंते ! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जावणो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ ? ८६७ उ. गौतम ! कृष्णलेश्या (के द्रव्य) नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में, उसी के वर्ण रूप में, उसी के गंध रूप में, उसी के रस रूप में तथा उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है, वह लेश्या गति है। इसी प्रकार नील लेश्या भी कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में परिणत होती है, इसी प्रकार कापोतलेश्या भी तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है, वह लेश्यागति है। २५. आकार भावादि मात्रा से लेश्याओं का परस्पर अपरिणमनप्र. भंते ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप (आकार) में उसी के वर्ण रूप में. उसी के गन्ध रूप में. उसी के रस रूप में और उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है? उ. हां, गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में, उसी के वर्ण रूप में, उसी के गन्ध रूप में, उसी के रस रूप में और उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है?" उ. गौतम ! वह कदाचित आकार भावमात्रा से अथवा प्रतिभागभावमात्रा से कृष्णलेश्या ही है, वह नीललेश्या नहीं हो जाती है। वह वहां रही हुई घटती-बढ़ती नहीं है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है।" प्र. भंते ! क्या नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है? उ. हां, गौतम ! नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है?" उ. गौतम ! वह कदाचित् आकारभावमात्रा से अथवा प्रतिभागभावमात्रा से नीललेश्या ही है.वह कापोतलेश्या नहीं हो जाती है। वह वहां रही हुई घटती-बढ़ती नहीं है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है। इसी प्रकार कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पदमलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है। उ. हंता गोयमा ! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जावणो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ? उ. गोयमा ! आगारभावमायाए वा, से सिया पलिभागभावमायाए वा से सिया णीललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थ गया उस्सकइ वा, ओसक्कइ वा, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइणीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ।" एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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