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________________ ज्ञान अध्ययन साहरणं पडुच्य अड्ढाइज्जदीव समुद्द तदेवकदेसभाए होज्जा, प. ते णं भंते ! एगसमएणं केवइया होज्जा ? उ. गोयमा ! जहणेन एक्को वा दो वा तिणि या, उक्कोसेणं दस से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्येगइए केवलिपण्णत्त धम्मं लभेज्ज सवणवाए, अत्थेगइए नो लभेज्ज सवणयाए जाव अत्थेगइए केवलनाणं उप्पाडेज्जा अत्येगइए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा । - विया. स. ९, उ. ३१, सु. ८-३१ ११८. सोच्या पंचणाणाणं उपायानुष्पाय परूवणं प. सोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा आभिणिबोहियणाणं जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा ? उ. गोयमा ! सोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उयासियाए अत्येगइए आभिणिबोहियणाणं जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो उप्पाडेज्जा । से जहेब असोच्चा। तस्स णं अट्ठमअट्टमेणं अनिक्खित्तेण तयोकम्पेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव जाव ईहापोह - मग्गण - गवेसणं करेमाणस्स करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ । सेणं तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई अलोए लोयप्यमाणमेत्ताई खंडाई जाणइ पासइ । प. से णं भंते! कइसु लेस्सासु होज्जा ? उ. गोयमा ! छसु लेस्सासु होज्जा, तं जहा१. कण्हलेसाए जाव ६. सुक्कलेसाए । प. से णं भंते! कइसु णाणेसु होज्जा । " उ. गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होज्जा । तिसु होज्जमाणे - १. आभिणिबोहियनाण, २. सुयनाणं, ३. ओहिनाणेसु होज्जा, चउसु होज्जमाणे, १. आभिणिबोहियनाण, २. सुयनाणं, ३. ओहिनाणं ४. मणपज्जवनाणेसु होज्जा । प से णं भंते! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा ? उ. गोयमा ! एवं जोगो, उवओगो, संघयणं, संठाणं, उच्चत्तं, आउयं च एयाणि सव्वाणि जहा असोच्याए तहेव भाणिपव्याणि । प. से णं भंते! किं सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा ? ६९५ संहरण की अपेक्षा अढाई द्वीप और दो समुद्रों के एक भाग में होते हैं। प्र. भन्ते ! वे (असोच्चा केवली) एक समय में कितने होते हैं ? उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट दस होते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि केवल यावत् केवलिपाक्षिक उपासिका से धर्मश्रवण किये बिना ही किसी जीव को केवल प्ररूपित धर्म श्रवण प्राप्त होता है। और किसी जीव को धर्म श्रवण का लाभ प्राप्त नहीं होता है। यावत् कोई जीव केवलज्ञान उपार्जन करता है और कोई जीव केवलज्ञान उपार्जन नहीं करता है। ११८. श्रुत्वा पांचज्ञानों के उपार्जन अनुपार्जन का प्ररूपण प्र. भन्ते ! केवली से यावत् केवली पाक्षिक की उपासिका से सुनकर क्या कोई जीव आभिनिबोधिकज्ञान यावत् केवलज्ञान प्राप्त करता है ? उ. गौतम ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक उपासिका से धर्म सुनकर कोई जीव आभिनिबोधिकज्ञान यावत् केवलज्ञान प्राप्त करता है और कोई जीव प्राप्त नहीं करता है। शेष वर्णन " असोच्चा" के समान है। निरन्तर तेले-तेले तपःकर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए प्रकृतिभद्रता आदि गुणों से यावत् ईहा, अपोह, मार्गणा एवं गवेषणा करते हुए अवधिज्ञान समुत्पन्न होता है। वह उस उत्पन्न अवधिज्ञान के प्रभाव से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को जानता और देखता है। प्र. भन्ते ! वह कितनी लेश्याओं में होता है ? उ. गौतम ! वह छहों लेश्याओं में होता है, यथा १. कृष्णलेश्या यावत् ६. शुक्ललेश्या । प्र. भन्ते ! वह कितने ज्ञानों में होता है ? उ. गौतम ! वह तीन या चार ज्ञानों में होता है। यदि तीन ज्ञानों में होता है, तो १. आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान और ३. अवधिज्ञान में होता है। यदि चार ज्ञानों में होता है तो १. आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान और ४. मनः पर्यवज्ञान में होता है। प्र. भन्ते वह सयोगी होता है या अयोगी होता है? उ. गौतम ! जैसे असोच्चा के योग, उपयोग, संहनन, संस्थान, ऊँचाई और आयुष्य के विषय में कहा, उसी प्रकार यहां भी योगादि के विषय में कहना चाहिए। प्र. भन्ते ! वह अवधिज्ञानी सवेदी होता है या अवेदी होता है ?
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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