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________________ ( ६९४ । अणंताणुबंधी कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता, अपच्चक्खाणकसाए कोह--माण-माया-लोभे खवइ, अपच्चक्खाणकंसाए कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता, पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता, संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, संजलणे कोह-माण-माया-लोभे-खवित्ता, पंचविहं नाणावरणिज्जं, नवविहं दरिसणावरणिज्ज, पंचविहमंतराइयं तालमत्थकडं च णं मोहणिज्ज कटु कम्मरयविकरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केबलवरनाण-दंसणे समुप्पज्जइ। प. से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्म आघवेज्जा वा जाव उवदंसेज्ज वा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे, णन्नत्थ एगणाएणं वा एगवागरणेण वा। द्रव्यानुयोग-(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करके अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध-मान-माया-लोभ-कषाय का क्षय करता है; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय का क्षय करके, प्रत्याख्यानावरण-क्रोध-मान-माया-और लोभ-कषाय का क्षय करता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान माया और लोभ कषाय का क्षय करके संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। संज्वलन क्रोध-मान-माया और लोभ का क्षय करके पंचविध ज्ञानावरणीयकर्म, नवविध दर्शनावरणीयकर्म, पंचविध अन्तरायकर्म तथा, मोहनीयकर्म को कटे हुए ताइवृक्ष के समान बनाकर, कर्मरज को बिखेरने वाले अपूर्वकरण (आठवें गुणस्थान) में प्रविष्ट उस जीव को अनन्त, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वे असोच्चा केवली, केवलिप्ररूपित धर्म का कथन करते हैं यावत् उदाहरण देकर समझाते हैं ? उ. गौतम ! यह शक्य नहीं है। वे केवल एक ज्ञात (दृष्टान्त) अथवा एक प्रश्न के उत्तर के सिवाय अन्य उपदेश नहीं करते। प्र. भन्ते ! वे (असोच्चा केवली) किसी को प्रव्रजित करते हैं या ___मुण्डित करते हैं? उ. गौतम ! यह शक्य नहीं है, किन्तु वे उपदेश (निर्देश) करते हैं। प्र. भन्ते ! वे सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? उ. हाँ, गौतम ! वे सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। प्र. भन्ते ! वे (असोच्चा केवली) ऊर्ध्वलोक में होते हैं, अधोलोक में होते हैं या तिर्यक्लोक में होते हैं ? उ. गौतम ! वे ऊर्ध्वलोक में भी होते हैं, अधोलोक में भी होते हैं और तिर्यक्लोक में भी होते हैं। यदि ऊर्ध्वलोक में होते हैं तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती और माल्यवन्त नामक वृत्त पर्वतों में होते हैं, तथा संहरण की अपेक्षा सौमनसवन में अथवा पाण्डुकवन में होते हैं। यदि अधोलोक में होते हैं तो गर्त में अथवा गुफा में होते हैं, तथा संहरण की अपेक्षा पातालकलशों में अथवा भवनवासी देवों के भवनों में होते हैं। यदि तिर्यक्लोक में होते हैं तो पन्द्रह कर्मभूमि में होते हैं तथा प. सेणं भंते ! पव्वावेज्ज वा, मुडावेज्ज वा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे, उवदेस पुण करेज्जा। प. से णं भंते ! सिज्झइ जाव अंतं करेइ? उ. हता, गोयमा ! सिज्झइ जाव अंतं करेइ। प. से णं भंते ! किं उड्ढं होज्जा, अहो होज्जा, तिरिय होज्जा? उ. गोयमा ! उड्ढं वा होज्जा, अहो वा होज्जा, तिरिय वा होज्जा। उड्ढे होज्जमाणे सद्दावइ-वियडावइ-गंधावइमालवंत-परियाएसु वट्टवेयड्ढ-पव्वएसु होज्जा। साहरणं पडुच्च सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होज्जा। अहो होज्जमाणे गड्डाए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच्चं पायाले वा भवणे वा होज्जा। तिरिय होज्जमाणे पण्णरससु कम्मभूमीसु होज्जा,
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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