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________________ ६९० तस्स णमेव भवइ अल्थि णं मम अइसेसे नाण- दंसणे समुप्पन्ने, "सव्वमिणं जीवा", " संतेगइया समणा थी, माहणा वा एवमाहंसु "जीवा चेव अजीवा चैव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, तस्सं णं इमे चत्तारि जीवनिकाया णो सम्ममुवगया भवंति, तं जहा १. पुढविकाइया, ३. तेउकाइया, २. आउकाइया, ४. वाउकाइया । इच्चेएहिं चउहिं जीवनिकाएहिं मिच्छादंडं पवत्तेइ, सत्तमे विभंगनाणे। -ठाणं. अ. ७, सु. ५४२ ११६. अण्णाणणिव्वत्ती भेया चउवीसदंडएसु य परूवणंप. कइविहाणं भंते! अण्णाणणिव्यत्ती पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! तिविहा अण्णाणणिव्यत्ती पण्णत्ता, तं जहा१. मइअण्णाणणिव्वत्ती, २. सुयअण्णाणणिव्वत्ती, ३. विभंगनाणणिव्यत्ती। दं. १-२४. एवं जस्स जइ अण्णाणा जाव वेमाणियाणं । - विया. स. १९, उ. ८, सु. ४०-४१ ११७. असोच्चा पंचनाणाणं उपायानुष्पाय पलवणं प. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स या जाव तप्पक्खियाए उवासियाए वा केवल आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा ? उ. गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियाए उवासियाए वा अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, अत्येगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेजा। प से केणट्ठेणं भंते! एवं युच्चइ " से णं असोच्या केवलिस वा जाव तप्पक्खियाए उयासियाए वा अत्थेगइए केवल आभिणिबोडियनाणं उपाडेज्जा, अत्येगइए केवल आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा ?" उ. गोयमा ! जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियाए उवासियाए वा केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ. से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियाए उवासियाए या अत्येगइए केवल आभिणिबोहियनाणं नो उपाडेजा। से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ द्रव्यानुयोग - (१) तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि - "मुझे अतिशय युक्त ज्ञान दर्शन प्राप्त हुआ है।" मैं देख रहा हूँ कि-" ये सभी जीव ही हैं।" कुछ श्रमण या माहण ऐसा कहते हैं कि- "जीव भी है और अजीव भी है।" जो ऐसा कहते हैं ये मिथ्या कहते हैं। उस विभंगज्ञानी को इन चार जीवनिकायों का सम्यग् ज्ञान नहीं होता है, यथा १. पृथ्वीकाय, ३. तेजस्काय, २. अप्काय, ४. वायुकाय । इसलिए वह इन चार जीवनिकायों पर मिथ्या दण्ड का प्रयोग करता है। यह सातवां विभंगज्ञान है। ११६. अज्ञान-निर्वृत्ति भेद और चौबीसदंड़कों में प्ररूपणप्र. भन्ते ! अज्ञान - निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? उ. गौतम ! अज्ञान-निर्वृत्ति तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. मति- अज्ञान-निर्वृत्ति, २ श्रुत- अज्ञान-निर्वृत्ति, ३. विभंगज्ञान निर्वृत्ति। दं. १ २४ इसी प्रकार वैमानिकों- पर्यन्त जिसके जितने अज्ञान हो उसके उतनी अज्ञान निर्वृत्तियां कहनी चाहिए। ११७. अश्रुत्वा पांच ज्ञानों के उपार्जन अनुपार्जन का प्ररूपणप्र. भन्ते ! केवली यावत उसकी उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है? उ. गौतम ! केवली यावत् उसकी उपासिका से सुने बिना कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान प्राप्त करता है, कोई जीव आभिनिबोधिकज्ञान प्राप्त नहीं करता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "केवलि यावत् उसकी उपासिका से सुने बिना कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान प्राप्त करता है। कोई जीव शुद्धआभिनिबोधिकज्ञान प्राप्त नहीं करता है ?" उ. गौतम ! जिस जीव ने आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, वह केवली यावत् उसकी उपासिका से सुने बिना ही शुद्ध आभिनियोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है. किन्तु जिसने आभिनियोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया है, वह केवली यावत् उसकी उपासिका से सुने बिना कोई एक शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान का उपार्जन नहीं कर पाता। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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