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ज्ञान अध्ययन
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४. अहावरे चउत्थे विभंगनाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासइ, बाहिरब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता, पुढेगत्तं णाणत्तं फुसिया, फुरित्ता फुट्टित्ता विकुव्वित्ता णं चिट्ठित्तए,
तस्स णमेवं भवइ अस्थि णं मम अइसेसे नाण-दंसणे समुप्पन्ने, “मुदग्गे जीवे",
संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-"अमुदग्गे जीवे", जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमाहंसु, चउत्थे विभंगनाणे। ५. अहावरे पंचमे विभंगनाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासइ, “बाहिरब्भंतरए पोग्गलए अपरियाइत्ता वा पुढेगत्तं णाणत्तं फुसिया, फुरित्ता फुट्टित्ता विउव्वित्ता णं चिट्ठित्तए",
तस्स णमेवं भवइ अस्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने "अमुदग्गे जीवे",
४. चौथा विभंगज्ञानजब तथारूप श्रमण या माहण को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह समुत्पन्न विभंगज्ञान से बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण कर देवों को विकुर्वणा करते हुए देखता है। वे देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हलचल पैदा कर, उनका स्फोट कर, पृथक्-पृथक् काल व देश में कभी एक रूप व कभी विविध रूपों की विक्रिया करते हैं। यह देखकर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि-"मुझे अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है जिससे मैं देख रहा हूँ कि-"जीव पुद्गलों से ही बना हुआ है।" कुछ श्रमण या माहण ऐसा कहते हैं कि-"जीव पुद्गलों से बना हुआ नहीं है।" जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं -यह चौथा विभंगज्ञान है। ५. पांचवां विभंगज्ञानजब तथारूप श्रमण या माहण को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण किए बिना देवों को विक्रिया करते हुए देखता है। वे देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हलचल पैदा कर, उनका स्फोट कर, पृथक्-पृथक् काल व देश में कभी एक रूप व कभी विविध रूपों की विक्रिया करते हैं। यह देखकर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि-"मुझे अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि“जीव पुद्गलों से बना हुआ नहीं है।" कुछ श्रमण या माहण ऐसा कहते हैं-“जीव पुद्गलों से बना हुआ है।" जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। -यह पांचवां विभंगज्ञान है। ६. छठा विभंगज्ञानजब तथारूप श्रमण या माहण को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से देवों को बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके या ग्रहण किए बिना विक्रिया करते हुए देखता है। वे देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हलचल पैदा कर, उनका स्फोट कर, पृथक्-पृथक् काल व देश में कभी एक रूप व कभी विविध रूपों की विक्रिया करते हैं। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि-"मुझे अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ-"जीव रूपी ही हैं।" कुछ श्रमण या माहण ऐसा कहते हैं-"जीव अरूपी है" जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह छठा विभंगज्ञान है। ७. सातवां विभंगज्ञानजब तथारूप श्रमण या माहण को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से सूक्ष्म वायु के स्पर्श से, पुद्गल-काय को कम्पित होते हुए, विशेष रूप से कम्पित होते हुए, चलित होते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पंदित होते हुए, दूसरे पदार्थों का स्पर्श करते हुए, दूसरे पदार्थों को प्रेरित करते हुए, विविध प्रकार के पर्यायों में परिणत होते हुए देखता है।
संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-"मुदग्गे जीवे", जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, पंचमे विभंगनाणे। ६. अहावरे छठे विभंगनाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासइ, बाहिरभंतरे पोग्गले परियाइत्ता वा अपरियाइत्ता वा, पुढेगत्तं णाणत्तं फुसिया, फुसेत्ता, फुट्टित्ता विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तए।
तस्स णमेवं भवइ अत्थिं णं मम अइसेसे नाण-दंसणे समुप्पन्ने, “रूवी जीवे",
संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-“अरूवी जीवे" जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, छठे विभंगनाणे। ७. अहावरे सत्तमे विभंगनाणे जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं पासइ सुहुमेणं वायुकाएणं फुडं पोग्गलकार्य एयंत वेयंत चलंतं खुब्भंतं फंदंतं घटतं उदीरेंतं तं तं भावं परिणमंतं,