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________________ । द्रव्यानुयोग-(१)) ६८८ ११५. सत्तविह विभंगणाण पखवण सत्तविहे विभंगणाणे पण्णत्ते,तं जहा१. एगदिसिलोगाभिगमे, २. पंचदिसिलोगाभिगमे, ३. किरियावरणे जीवे, ४. मुदग्गे जीवे, ५. अमुदग्गे जीवे, ६. रूवी जीवे, ७. सव्वमिणं जीवा। १. तत्थ खलु इमे पढमे विभंगनाणेजया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेण विभंगनाणेण समुप्पन्नेणं अण्णयरिं एग दिसिं पासइ पाईणं वा, पडीणं वा, दाहिणं वा, उदीणं वा, उड्ढं वा जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णमेवं भवइ “अस्थि णं मम अइसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने-एगदिसिं लोगाभिगमे", संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-"पंचदिसिं लोगाभिगमे", जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, पढमे विभंगनाणे। २. अहावरे दोच्चे विभंगनाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा, माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, “से णं, तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं पासइ पाईणं वा जाव उदीणं वा, उड्ढे वा जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णमेवं भवइ अस्थि णं मम अइसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने-"पंचदिसिं लोगाभिगमे", ११५. सात प्रकार के विभंगज्ञानों का प्ररूपण विभंगज्ञान सात प्रकार का कहा गया है, यथा१. एक दिशा में लोक का ज्ञान, २. पांच दिशा में लोक का ज्ञान, ३. जीव क्रियावरण है (कर्मावरण नहीं), ४. पुद्गल निर्मित शरीर ही जीव है, ५. पुद्गलों से अनिष्पन्न शरीर ६. रूपीजीव, (रूप वाला जीव है), ७. ये सब गतिशील पदार्थ जीव हैं। १. पहला विभंगज्ञानजब तथारूप श्रमण या माहण को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह समुत्पन्न विभंगज्ञान से पूर्व, पश्चिम, दक्षिण या उत्तर दिशा में यावत् सौधर्म देवलोक तक की ऊर्ध्व दिशा में से किसी एक दिशा को देखता है, तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि-"मुझे अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है जिसमें मैं एक दिशा में ही लोक को देख रहा हूँ।" कुछ श्रमण-माहण ऐसा कहते हैं कि "लोक पांच दिशाओं में है।" जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं -यह पहला विभंगज्ञान है। २. दूसरा विभंगज्ञानजब तथारूप श्रमण या माहण को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह समुत्पन्न विभंगज्ञान से पूर्व यावत् उत्तर दिशा में तथा सौधर्म देवलोक तक की ऊर्ध्व दिशा में देखता है। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि 'मुझे अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं पांचों दिशाओं में ही लोक को देख रहा है।" कुछ श्रमण या माहण ऐसा कहते हैं कि-"लोक एक दिशा में ही है।" जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं -यह दूसरा विभंगज्ञान है। ३. तीसरा विभंगज्ञानजब तथारूप श्रमण या माहण को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह समुत्पन्न विभंगज्ञान से जीवों को हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, अदत्त ग्रहण करते हुए, मैथुन सेवन करते हुए, परिग्रह ग्रहण करते हुए और रात्रि भोजन करते हुए देखता है, किन्तु उन प्रवृत्तियों के द्वारा होते हुए कर्मबन्ध को नहीं देखता है। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि-"मुझे अतिशय युक्त ज्ञानदर्शन प्राप्त हुआ है जिससे मैं देख रहा हूँ कि-"जीव क्रिया से ही आवृत है" कुछ श्रमण या माहण ऐसा कहते हैं कि-"जीव क्रिया से आवृत नहीं है।" जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। -यह तीसरा विभंगज्ञान है। संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-“एगदिसिं लोगाभिगमे", जे ते एवमाहेसु मिच्छं ते एवमाहंसु, दोच्चे विभंगनाणे। ३. अहावरे तच्चे विभंगनाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं पासइ पाणे अइदाएमाणे, मुसं वएमाणे, अदिन्नमादिएमाणे, मेहुणं पडिसेवमाणे, परिग्गहं परिगिण्हमाणे, राइभोयणं भुंजमाणे वा पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो पासइ, तस्स णमेवं भवइ-अस्थि णं मम अइसेसे नाण-दंसणे समुप्पन्ने, “किरियावरणे जीवे",... संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-"नो किरियावरणे जीवे", जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, तच्चे विभंगनाणे।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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