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________________ ज्ञान अध्ययन ६५१ ६२. जंबूद्दीवपण्णत्तीए उवसंहारो तए णं समणं भगवं महावीरं मिहिलाए णयरीए माणिभद्दे चेइए बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं, बहूणं देवाणं, बहूणं देवीणं मज्झगए एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ जम्बूद्दीवपण्णत्ती णामत्ति अज्जो ! अज्झयणे अटुं च हेउं च पसिण व कारणं च वागरणं च भुज्जो-भुज्जो उवदंसेइ, त्ति बेमि। -जंबू. वक्ख.७, सु. २१३ ६३. निरयावलिया उवंगस्स उक्खेबो तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, रिद्धिस्थिमियसमिद्धे गुणसीलए चेइए, वण्णओ असोगवरपायवे पुढविसिलापट्टए। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तेवासी अज्जसुहम्मे नामं अणगारे जाइसंपन्ने जाब-पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, जेणेव रायगिहे नयरे जाव अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ६२. जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति का उपसंहार (सुधर्मा स्वामी ने अपने अन्तेवासी जम्बू को सम्बोधित कर कहा-) हे आर्य जम्बू ! मिथिला नगरी के अन्तर्गत माणिभद्र चैत्य में बहुत से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत से श्रावकों, बहुत-सी श्राविकाओं, बहुत से देवों, बहुत-सी देवियों की परिषद् के बीच श्रमण भगवान् महावीर ने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नामक अध्ययन का इस प्रकार से कथन, भाषण, निरूपण और प्ररूपण किया तथा श्रोताओं के अनुग्रह के लिए अध्ययन के अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याख्या का बार-बार विवेचन किया, ऐसा मैं कहता हूँ। ६३. निरयावलिका उपांग का उत्क्षेप उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था, वह ऋद्धि . समृद्धि आदि से सम्पन्न था। वहां (उत्तर-पूर्व में) गुणशीलक नामक चैत्य था। वर्णन करना चाहिए। वहां उत्तम अशोक वृक्ष था और उसके नीचे एक पृथ्वीशिलापट्टक स्थित था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अंतेवासी जाति कुल आदि से संपन्न आर्य सुधर्मा स्वामी नामक अनगार यावत् पांच सौ अनगारों के साथ पूर्वानुपूर्वी के क्रम से चलते हुए जहां राजगृह नगर था वहां पधारे यावत् यथाप्रतिरूप (साधुमर्यादानुरूप) अवग्रह (अनुमति) प्राप्त करके संयम एवं तपश्चर्या से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उनके दर्शनार्थ परिषद् निकली। आर्य सुधर्मा ने धर्मोपदेश दिया और (धर्म देशना सुनकर) परिषद् वापिस लौट गई। उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अणगार के अंतेवासी समचतुरन संस्थान से संस्थित (यावत्) विपुल तेजोलेश्या से समाहित जंबू नामक अणगार आर्य सुधर्मा स्वामी के समीप ऊर्थ्य जानु अधःशिर करके यावत् विचरण करते थे। तब उन जंबू अणगार को श्रद्धा उत्पन्न हुई (यावत्) पर्युपासना करते हुए (आर्य सुधर्मा स्वामी से) इस प्रकार पूछाप्र. भन्ते ! श्रमण भगवान् महावीर यावत् सिद्धगति नामक स्थान प्राप्त द्वारा उपांगसूत्र का क्या अर्थ कहा गया है ? उ. जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर यावत् सिद्धगति नामक स्थान प्राप्त द्वारा उपांगसूत्र के पांच वर्ग कहे गए हैं, यथा परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी जंबू णामं अणगारे समचउरंस संठाण संठिए (जाव) संखित्तविउल तेउलेस्से अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उड्ढं जाणू जाव विहरइ। तए णं से जंबू ! जायसड्ढे (जाव) पज्जुवासमाणे एवं वयासीप. उवंगाणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते? उ. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता,तंजहा१. निरयावलियाओ, २. कप्पवडिंसियाओ, ३. पुफियाओ, ४. पुप्फचूलियाओ, ५. वण्हिदसाओ। प. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता,तं जहा१.निरयावलियाओ जाव ५. वण्हिदसाओ। पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं निरयावलियाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता? उ. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता,तं जहा १. निरयावलिका, २. कल्पावतंसिका, ३. पुष्पिका, ४. पुष्पचूलिका, ५. वृष्णिदशा प्र. भन्ते ! यदि श्रमण भगवान् महावीर यावत् सिद्धगति नामक स्थान प्राप्त द्वारा उपांग सूत्र के पांच वर्ग कहे गए है, यथा १.निरयावलिका यावत् ५. वृष्णिदशा। भन्ते ! उपांग सूत्र के प्रथम वर्ग निरयावलिका के कितने अध्ययन कहे गए हैं ? उ. जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर यावत् सिद्धगति नामक स्थान प्राप्त द्वारा उपांग सूत्र के प्रथम वर्ग निरयावलिका के दस अध्ययन कहे गए हैं, यथा
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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