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________________ ६४९ ज्ञान अध्ययन अहवा जस्स जत्तिया सिस्सा उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए पारिणामियाए चउव्विहाए बुद्धीए उववेया तस्स तत्तियाई पइण्णगसहस्साई, पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव। से तं कालियं। सेतं आवस्सयवइरित। से तं अणंगपविट्ठ। -नंदी.सु.८४-८५ ५४. उत्तरायणस्स अज्झयणा छत्तीसं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता,तं जहा१. विणयसुर्य, २. परीसहो, ३. चाउरंगिज, ४. असंखय, ५. अकाममरणिज्ज, ६. पुरिसविज्जा, ७. उरभिज्ज, ८. काविलियं, ९. नमिपव्वज्जा, १०. दुमपत्तयं, ११. बहुसुयपूजा, १२. हरिएसिज्ज, १३. चित्तसंभूयं, १४. उसुकारिज्जं, १५. सभिक्खुयं, १६. समाहिठाणाई, १७. पावसमणिज, १८. संजइज्ज, १९. मिपंचारिया, २०. अणाहपव्वज्जा, अथवा जिस तीर्थकर के जितने शिष्य औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी बुद्धि से युक्त है, उनके उतने ही हजार प्रकीर्णक होते हैं। प्रत्येकबुद्ध भी उतने ही होते हैं। यह कालिक श्रुत का वर्णन है। यह आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत का वर्णन है। यह अंग बाह्य श्रुत का वर्णन है। ५४. उत्तराध्ययन के अध्ययन उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययन कहे गए हैं, यथा१. विनयश्रुत, २. परीषह, ३. चातुरंगीय, ४. असंस्कृत, ५. अकाममरणीय, ६. पुरुष विद्या, ७. औरभ्रीय, ८. कापिलीय, ९. नमिप्रव्रज्या, १०. दुमपत्रक, ११. बहुश्रुतपूजा, १२. हरिकेशीय, १३. चित्तसंभूतीय, .१४. इषुकारीय, १५. सभिक्षु, १६. समाधिस्थान, १७. पापश्रमणीय, १८. संयतीय, १९. मृगचारिका २०. अनाथ प्रव्रज्या, (मृगापुत्रीय) २१. समुद्रपालीय, २२. रथनेमीय, २३. गौतमकेशीय, २४. समिति, २५. यज्ञीय, २६. सामाचारी, २७. खलुकीय, २८. मोक्षमार्गगति, २९. अप्रमाद, ३०. तपोमार्ग, ३१. चरणविधि, . ३२. प्रमादस्थान, ३३. कर्मप्रकृति, ३४. लेश्या अध्ययन, ३५. अनगारमार्ग, ३६. जीवाजीवविभक्ति। २१. समुद्दपालिज्ज, २२. रहनेमिज्ज, २३. गोयमकेसिज्ज, २४. समितीओ, २५. जन्मइज, २६. सामायारी, २७. खलुकिज्ज, २८. मोक्खमग्गगई, २९. अप्पमाओ, ३०. तयोमग्गो, ३१. चरणविही, ३२. पमायठाणाई, ३३. कम्मपयडी, ३४. लेस्सज्झयणं, ३५. अणगारमग्गे, ३६. जीबाजीवविभत्तीय। -सम., सम.३६.सु.१ ५५. परीसहऽज्झयणस्स उक्खयो सुयं मे,आउसं ! तेणं भगवयो एवमक्खायइह खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवधा महाबीरेण कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयन्तो पुट्ठो नो विहन्नेज्जा। कयरे खलु ते बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइया, जे भिखू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय भिक्रवायरियाए परिव्वयन्तो पुट्ठो नो विहन्नेज्जा? ५५. परीषह अध्ययन का उपोद्घात हे आयष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान ने इस प्रकार कहा हैकाश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर ने बावीस परीषह कहे हैं, जिन्हें सुन कर, जान कर, अभ्यास के द्वारा परिचित कर, पराजित कर और भिमाचर्या के लिये पर्यटन करता हुआ भिक्षु इन परीषहों से स्पृष्ट होने पर भी विचलित नहीं होता। बाईस परीषह कौन-से हैं, जो काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महाबीर ने कहे हैं, जिन्हें सुन कर, जान कर, अभ्यास के द्वारा परिचित कर, पराजित कर,भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ भिक्षु उनसे स्पृष्ट होने पर भी विचलित नहीं होता? वे बाईस परीषह ये है,जो काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर ने कहे हैं। जिन्हें भिक्षु सुन कर ,जान कर, अभ्यास के द्वारा परिचित कर, पराजित कर, भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ भिक्षु उनसे स्पृष्ट होने पर भी विचलित नहीं होता। इमे खलु ते बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय,भिक्खायरियाएपरिव्वयन्तो पुट्ठो नो विहन्नेज्जा। -उत्त.अ.२, सु.१-२ १. परीषहों का वर्णन चरणानुयोग भाग २ पृ.३६८ पर देखें।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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