SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 755
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६४८ - एस गहिया विसंता, थद्धे गारविय माणि-पडिणीए। अबहुस्सए ण देया, तब्विवरीए भवे देया॥ सद्धा धिइ उट्ठाणुच्छह-कम्म-बल-विरिय पुरिसकारेहिं। जो सिक्खिओऽवि संतो, अभायणे पक्खिवेज्जाहिं। सो पवयण-कुल-गण-संघबाहिरो णाण-विणय-परिहीणो। अरहत-थेर गणहरमेरं, किर होइ वोलीणो॥ तम्हा धिइ उट्ठाणुच्छाह, कम्म-बल-विरियसिक्खिणाणं। धारेयव्वं णियमा ण य अविणएसु दायव्यं ॥ वीरवरस्स भगवओ,जर-मरण-किलेस-दोसरहियस्स। वंदामि विणयपणओ,सोक्खुप्पाए सया पाए॥ -सूरिय.पा.२०, सु.१०७ ५३. कालियसुयं प. से किं तं कालियं? उ. कालियं अणेगविहं पण्णत्तं,तं जहा १. उत्तरज्झयणाई, २. दसाओ, ३. कप्पो, ४. ववहारो, ५. णिसीहं, ६. महाणिसीहं, ७. इसिभासियाई, ८. जंबुद्दीवपण्णत्ती, ९. दीवसागरपण्णत्ती, १०. चंदपण्णत्ती, ११. खुड्रिया विमाण- १२. महल्लिया विमाणपविभत्ती, पविभत्ती, १३. अंगचूलिया, १४. वग्गचूलिया, १५. विवाहचूलिया, १६. अरुणोववाए, १७. वरुणोववाए, १८. गरुलोववाए, १९. धरणोववाए, २०. वेसमणोववाए, २१. देविंदोववाए, २२. वेलंधरोववाए, २३. उट्ठाणसुयं, २४. समुट्ठाणसुयं, २५. नागपरियावणियाओ, २६. निरयावलियाओ (कप्पियाओ) २७. कप्पवडिंसियाओ, २८. पुष्फियाओ, २९. पुप्फचूलियाओ, ३०. वण्हीदसाओ, एवमाइयाइं चउरासीइ पइण्णगसहस्साई भगवओ अरहंतो सिरि उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स, तहा संखेज्जाणि पइण्णगसहस्साणि मज्झिमगाणं जिणवराणं, चोद्दस पइण्णगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स। द्रव्यानुयोग-(१) यदि किसी अविनयी ने प्राभृतों के अर्थ ग्रहण भी कर लिए तो वह अहंकारी घमंडी अभिमानी विरोधी हो जायगा। अतः अबहुश्रुतों को ये प्राभृतार्थ नहीं देने चाहिए, अपितु बहुश्रुत को ही देना चाहिए। जो श्रद्धा, धैर्य, उत्थान, उत्साह, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषार्थ से सीखे हुए प्राभृतों के अर्थ अपात्र को देवेगा तो वह निर्ग्रन्थ प्रवचन कुल गण संघ से बहिष्कृत होता है ज्ञान और विनय से हीन होता है तथा अरिहंत (तीर्थकर) गणधर एवं स्थविरों की मर्यादा को भंग करने वाला होता है। इसलिये धैर्य, उत्थान एवं उत्साह से तथा कर्म बल वीर्य से सीखा हुआ ज्ञान निश्चय ही स्वयं को धारण करके रखना चाहिए किन्तु अविनयी जनों को नहीं देना चाहिए। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए जरा मरण क्लेशादि दोष से रहित भगवान महावीर के चरणों में विनयावनत होकर सदा वंदना करता हूँ। ५३. कालिकश्रुत प्र. कालिक श्रुत कितने प्रकार का है? उ. कालिक श्रुत अनेक प्रकार का कहा गया है, यथा १. उत्तराध्ययन, २. दशाश्रुतस्कन्ध, ३. बृहत्कल्प, ४. व्यवहार, ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. ऋषिभाषित, ८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ९. द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, १०. चन्द्र प्रज्ञप्ति ११. क्षुद्रिका विमान, १२. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति, प्रविभक्ति, १३. अंगचूलिका, १४. वर्गचूलिका, १५. विवाहबूलिका, १६. अरुणोपपाल, १७. वरुणोपपात, १८. गरुडोपपात, १९. धरणोपपात, २०. वैश्रमणोपपात, २१. देवेन्द्रोपपात, २२. वेलन्धरोपपात, २३. उत्थानश्रुत, २४. समुत्थानश्रुत, २५. नागपरिज्ञापनिका, २६. निरयावलिका (कल्पिका) २७. कल्पावतंसिका, २८. पुष्पिका, २९. पुष्पचूलिका, ३०. वृष्णिदशा, इत्यादि चौरासी हजार प्रकीर्णक आदि तीर्थंकर अर्हत् भगवन्त श्री ऋषभदेव स्वामी के हैं, संख्यात सहन प्रकीर्णक मध्यम तीर्थंकरों के हैं। चौदह हजार प्रकीर्णक भगवान महावीर स्वामी के हैं। १. चत्तारि पण्णत्तीओ अंगबाहिरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. चंदपण्णत्ती, २. सूरपण्णत्ती, ३. जंबूद्दीवपण्णत्ती, ४. दीवसागरपण्णत्ती। -ठाणं. अ.४, उ.१.सु. २७७
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy