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________________ ६०० प. कम्हा ? उ. सम्मत्तहेउत्तणओ जम्हा ते मिच्छदिठिया तेहिं चैव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठीओ बमेंति । सेतं मिच्छ - नंदी. सु. ७७ (७-८) साई अणाई सुप भैया प से किं तं सादीयं सपज्जवसियं? अणादीयं अपज्जवसियं च ? उ. इच्चेयं दुबालसंगं गणिपिडगं बुच्छित्तिणयट्ट्याए सादीयं सपज्जवसिय अवच्छित्तिणयट्ट्याए अणादीयं अपज्जवसियं । (९-१०) सपज्जवसिय अपज्जवसिय भेया तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं तं जहा , १. दव्वओ, २ . खेत्तओ, ३. कालओ, ४. भावओ । १. सत्य दव्यओ णं सम्मसूर्य एग पुरिस पडुच्च सादीयं सपज्जयसिय बहवे पुरिसे पडुच्च अणादीयं अपज्जवसियं । २. खेत्तओ णं सम्मसुयं पंच भरहाई पंच एरवयाई पडुच्च सादीयं सपज्जवसियं 7 पंच महाविदेहाई पडुच्च अणादीयं अपज्जवसियं । ३. कालओ णं सम्मसुर्य ओसप्पिणि उस्सप्पिणि च पडुच्च सादीयं सपज्जवसियं, णो ओसप्पिणिं णो उस्सप्पिणिं च पडुच्च अणादीयं अपज्जवसियं । ४. भावओ णं-जे जया जिणपण्णत्ता भावा १. आघविज्जति, २. पण्णविज्जंति, ३. परूविज्जंति, ४. दंसिज्जति, ५. णिदंसिजति, ६. उवदंसिज्जति, - ते तया भावे पडुच्च सादीयं सपज्जवसिय खाओवसमियं पुण भावं पडुच्च अणादीयं अपज्जवसियं । अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साईयं सपज्जवसियं, अभवसिद्धीयस्स सुर्य अणादीय अपज्जयसिय सव्वागासपएसग्गं सव्वगासपएसेहिं अनंतगुणियं पज्जवक्खरं णिष्करण। सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अनंतभागो णिच्चुग्धाडियो, जह पुण सो वि आवरिजा तेणं जीवो अजीवत्तं पावेज्जा । “सुटठु वि मेहसमुदए होइ पभा चंद-सूराणं । " सेतं सादीयं सपज्जवसिय से तं अनादीयं अपज्जवसिय - नंदी. सु. ७८ द्रव्यानुयोग - ( १ ) किस कारण से ? सम्यक्त्व का हेतु होने से कई मिथ्यादृष्टि इन ग्रन्थों से प्रेरित होकर अपने मिथ्यात्व को त्याग देते हैं। यह मिथ्या श्रुत का स्वरूप है। (७-८) सादि-अनादि श्रुत भेद प्र. सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसितश्रुत क्या है? प्र. उ. उ. यह द्वादशांगरूप गणिपिटक - वुच्छित्ति (पर्यायार्थिक ) नव की अपेक्षा से सादि- सान्त है, अयुच्छित्ति (द्रव्यार्थिक) नय की अपेक्षा से आदि अन्त रहित है। (९-१०) सपर्यवसित अपर्यवसित भेद यह श्रुतज्ञान संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, ४. भाव से । १. द्रव्य से - सम्यक् श्रुत एक व्यक्ति की अपेक्षा से सादि सपर्यवसित अर्थात् सादि और सान्त है। बहुत से पुरुषों की अपेक्षा से अनादि अपर्यवसित अर्थात् आदि और अन्त से रहित है। २. क्षेत्र से - सम्यक् श्रुत पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों की अपेक्षा से सादि सान्त है। पांच महाविदेह क्षेत्रों की अपेक्षा से अनादि अनन्त है। ३. काल से सम्यश्रुत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से सादि- सान्त है। नो उत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी काल की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं। ४. भाव से तीर्थंकरों द्वारा कहे गए जो भाव (पदार्थ) जिस समय १. सामान्य रूप से कहे जाते हैं, २. विशेष रूप से कहे जाते हैं, ३. प्ररूपित किए ( समझाए जाते हैं, ४. उपमा द्वारा दिखाए (समझाए जाते हैं, ५. हेतु (कारण) कह कर समझाए जाते हैं, ६. उदाहरण देकर समझाए जाते हैं। तब उन भावों की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत सादि सान्त है । क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत अनादि अनन्त है। अथवा भवसिद्धिक प्राणी का श्रुत सादि सान्त है, अभवसिद्धिक प्राणी का श्रुत अनादि और अनन्त है। सम्पूर्ण आकाश प्रदेशों का समस्त आकाश प्रदेशों के साथ अनन्त बार गुणाकार करने से पर्याय अक्षर निष्पन्न होता है। सभी जीवों के अक्षर (श्रुतज्ञान) का अनन्तवां भाग सदैव उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवरण को प्राप्त हो जाए तो जीव अजीवभाव को प्राप्त हो जाएगा। जैसे कि "सघन मेघ हो जाने पर भी चन्द्र और सूर्य की कुछ न कुछ प्रभा तो रहती ही है। " यह सादि सपर्यवसित श्रुत है, यह अनादि अपर्यवसित श्रुत है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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