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________________ है। स्पर्श आठ प्रकार का है-उष्ण, शीत, रुक्ष, चिकना, हल्का, भारी, कर्कश, कोमल। इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय के ३, चक्षुरिन्द्रिय के ५, घ्राणेन्द्रिय के २, रसना के ५ और स्पर्शेन्द्रिय के ८, कुल मिलाकर पाँचों के तेईस विषय हैं। __ इन्द्रिय-निरोध-इन्द्रियों के ये विषय अपनी पूर्ति के प्रयास में किस प्रकार नैतिक पतन की ओर ले जाते हैं, इसका सजीव चित्रण उत्तराध्ययन के ३२वें अध्याय में मिलता है, यहाँ उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं। रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु-इन्द्रिय है और रूप चक्षु-इन्द्रिय का विषय है। प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप द्वेष का कारण है।' जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर पतंग मृत्यु पाता है, उसी प्रकार रूप में अत्यन्त आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु पाते हैं। रूप की आशा के वश पड़ा हुआ अज्ञानी जीव, त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है तथा पीड़ित करता है।३ रूप में मूर्छित जीव भोग्य पदार्थों के उत्पादन रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहाँ है? वह संभोग काल में ही अतृप्त रहता है। रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता, जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपभोग के समय भी वह दुःख ही पाता है। श्रोत्रेन्द्रिय शब्द को ग्रहण करने वाली और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है। प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है।६ जिस प्रकार शब्द-राग में गृद्ध मृग मारा जाता है, उसी प्रकार शब्दों के विषय में मूर्छित जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है। मनोज्ञ शब्द की लोलुपता के वशवर्ती भारीकर्मी जीव अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है और पीड़ा देता है। शब्द में मूर्च्छित जीव मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं वियोग की चिंता में लगा रहता है। वह संभोग काल के समय में भी अतृप्त ही रहता है, फिर उसे सुख कहाँ है?९ तृष्णा के वश में पड़ा हुआ वह जीव चोरी करता है तथा झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त ही रहता है और दुःख से नहीं छूट पाता।१०।। गन्ध को नासिका ग्रहण करती है और गन्ध नासिका का ग्राह्य विषय है। सुगन्ध राग का कारण है और दुर्गन्ध द्वेष का कारण है।" जिस प्रकार सुगन्ध में मूर्छित सर्प बिल से बाहर निकलने पर मारा जाता है, उसी प्रकार गन्ध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है।१२ सुगन्ध के वशीभूत होकर बाल जीव अनेक प्रकार से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है। सुगन्ध में आसक्त जीव सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण, व्यय तथा वियोग की चिन्ता में लगा रहता है, यह संभोग काल में भी अतृप्त रहता है। फिर उसे सुख कहाँ है? गंध में आसक्त जीव को कोई सुख नहीं होता, वह सुगन्ध के उपभोग के समय भी दुःख एवं क्लेश ही पाता है।१३ रस को रसनेन्द्रिय ग्रहण करती है और रस रसनेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है। मन-पसन्द रस राग का कारण और मन के प्रतिकूल रस द्वेष का कारण है।१४ जिस प्रकार खाने के लालच में मत्स्य काँटे में फँसकर मारा जाता है, उसी प्रकार रसों में अत्यन्त गृद्ध जीव अकाल में मृत्यु का ग्रास बन जाता है।१५ रसों में आसक्त जीव को कोई सुख नहीं होता, वह रसभोग के समय दुःख और क्लेश ही पाता है।१६ इसी प्रकार अमनोज्ञ रसों में द्वेष करने वाला जीव भी दुःख-परम्परा बढ़ाता है और कलुषित मन से कर्मों का उपार्जन करके दुःखद फल भोगता है।१७ __स्पर्श को शरीर ग्रहण करता है और स्पर्श, स्पर्शनेन्द्रिय (त्वक्) का ग्राह्य विषय है। सुखद स्पर्श राग का तथा दुःखद स्पर्श द्वेष का कारण है।१८ जो जीव सुखद स्पर्शों में अति आसक्त होता है, वह जंगल के तालाब के ठंडे पानी में पड़े हुए मगर द्वारा ग्रसे हुए भैंसे की तरह अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है।१९ स्पर्श की आशा में पड़ा हुआ भारी कर्मी जीव चराचर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है।२० सुखद स्पर्शों से मूर्छित प्राणी उन वस्तुओं की प्राप्ति, रक्षण, व्यय एवं वियोग की चिन्ता में ही घुला रहता है। भोग के समय भी वह तृप्त नहीं होता, फिर उसके लिए सुख कहाँ ?२१ स्पर्श में आसक्त जीवों को किंचित् भी सुख नहीं होता। जिस वस्तु की प्राप्ति क्लेश एवं दुःख से हुई, उसके भोग के समय भी उसे कष्ट ही मिलता है।२२ ___ आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं कि स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत होकर हाथी, रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर मछली, घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत होकर भ्रमर, चक्षु-इन्द्रिय के वशीभूत होकर पतंगा और श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत होकर हरिण मृत्यु का ग्रास बनता है। जब एक इन्द्रिय के विषयों में आसक्ति मृत्यु का कारण बनती है तो फिर पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में आसक्त मनुष्य की क्या गति होगी? कषाय-सिद्धान्त समूचा जगत् वासना से उत्पन्न कषाय की अग्नि से झुलस रहा है। अतएव शान्ति मार्ग के पथिक साधक के लिए कषाय का त्याग आवश्यक है। जैन-सूत्रों में साधक को कषायों से सर्वथा दूर रहने के लिए कहा गया है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि अनिगृहीत १. उत्तराध्ययन सूत्र, ३२/२३ २. वही, ३२/२४ ३. वही, ३२/२७ ४. वही, ३२/२८ ५. वही, ३२/३२ ६. वही, ३२/३६ ७. वही, ३२/३७ ८. वही, ३२/४0 ९. वही, ३२/४१ १०. वही, ३२/४३ ११. वही, ३२/४९ १२. वही, ३२/५० १३. वही, ३२/५३-५४ १४. वही, ३२/६२ १५. वही, ३२/६३ १६. वही, ३२/७१ १७. वही, ३२/७२ १८. वही, ३२/७५ १९. वही, ३२/७६ २०. वही, ३२/७८ २१. वही, ३२/८0 २२. वही, ३२/८४ (५१)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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