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________________ अपरिवर्तनशील द्रव्य होगा और जो स्वतः अपरिवर्तनशील हो वह दूसरों के परिवर्तन में निमित्त नहीं हो सकेगा । किन्तु काल द्रव्य का विशिष्ट लक्षण तो उसका वर्तना नामक गुण ही है जिसके माध्यम से वह अन्य सभी द्रव्यों में पर्याय परिवर्तन में निमित्त कारण बनकर कार्य करता है। पुनः यदि काल द्रव्य में ध्रौव्यत्व का अभाव मानेंगे तो उसका द्रव्यत्व समाप्त हो जायेगा। अतः उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानने पर उसमें उत्पाद - व्यय के साथ-साथ ध्रौव्यत्व भी मानना होगा। कालचक्र' - अर्धमागधी आगम साहित्य में काल की चर्चा उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल के रूप में भी उपलब्ध होती है। इनमें प्रत्येक के छह-छह विभाग किये जाते हैं, जिन्हें आरे कहा जाता है। ये छह आरे निम्न हैं-१ सुषमा- सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुषमा, ४. दुषमा- सुषमा, ५. दुषमा और ६. दुषमा-दुषमा । उत्सर्पिणी काल में इनका क्रम विपरीत होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल मिलकर एक कालचक्र पूरा होता है। जैनों की कालचक्र की यह कल्पना बौद्ध और हिन्दू कालचक्र की कल्पना से भिन्न है । किन्तु इन सभी में इस बात को लेकर समानता है कि इन सभी कालचक्र के विभाजन का आधार सुख-दुःख एवं मनुष्य के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की क्षमता को बनाया है। जैनों के अनुसार उत्सर्पिणी काल में क्रमशः विकास और अवसर्पिणी काल में क्रमशः पतन होता है। ज्ञातव्य है कि कालचक्र का प्रवर्तन जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र आदि कुछ विभागों में ही होता है। आत्मा एवं पुद्गल का सम्बन्ध इस प्रकार पाँच अस्तिकाय द्रव्यों एवं एक अनस्तिकाय द्रव्य का विवेचन करने के पश्चात् संसार एवं मोक्ष को समझने के लिए आत्मा एवं पुद्गल द्रव्य के पारस्परिक सम्बन्ध को समझना आवश्यक है, आत्मा एवं पुद्गल का परस्पर विचित्र सम्बन्ध है। इनके सम्बन्ध से ही शरीर इन्द्रिय, मन आदि प्राप्त होते हैं इनके सम्बन्ध से ही जीव एक गति से दूसरी गति में गमन करता है। इनका यह सम्बन्ध लेश्या, कषाय एवं कर्म-बन्ध के रूप में भी व्यक्त होता है। द्रव्यानुयोग में वर्णित विविध विषय-वस्तु में से यहाँ पर इन्द्रिय, कषाय-सिद्धान्त, लेश्या-सिद्धान्त एवं कर्म-सिद्धान्त पर विशेष विचार किया जा रहा है। इन्द्रिय 'इन्द्रिय' शब्द का अर्थ - 'इन्द्रिय' शब्द के अर्थ की विशद विवेचना न करते हुए यहाँ हम केवल यही कहेंगे कि जिन-जिन साधनों की सहायता से जीवात्मा विषयों की ओर अभिमुख होता है अथवा विषयों के उपभोग में समर्थ होता है, ये इन्द्रियाँ हैं। इस अर्थ को लेकर जैन बौद्ध और गीता की विचारणा में कहीं कोई विवाद नहीं पाया जाता । ३ इन्द्रियों की संख्या जैन दर्शन में इन्द्रियाँ पाँच मानी गयी है- (१) श्रोत्र, (२) चक्षु, (३) प्राण (४) रसना और (५) स्पर्शन (त्वचा)। जैन दर्शन में मन को नोइन्द्रिय (Quasi Sense Organ) कहा गया है। जैन दर्शन में कर्मेन्द्रियों का विचार उपलब्ध नहीं है, फिर भी पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसके १० बल की धारणा में से वा बल, शरीर वस एवं श्वासोच्छ्वास बल में समाविष्ट हो जाती हैं। इन्द्रिय-स्वरूप जैन दर्शन में उक्त पाँचों इन्द्रियों दो प्रकार की हैं - (१) द्रव्येन्द्रिय (२) भावेन्द्रिय इन्द्रियों का बाह्य संरचनात्मक पक्ष (Structural Aspect) द्रव्येन्द्रिय है और उनका आन्तरिक क्रियात्मक पक्ष (Functional Aspect) भावेन्द्रिय है। इनमें से प्रत्येक के पुनः उपविभाग किये गये हैं, जैसा कि निम्न सारणी से स्पष्ट है इन्द्रिय उपकरण (इन्द्रिय-रक्षक अंग) • द्रव्येन्द्रिय निवृत्ति (इन्द्रिय अंग) १. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की विस्तृत विवेचना हेतु देखेंतिलोयपण्णत्ति, जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर, ४ / ३२०-३९४ २. ३. ( ५० ) लब्धि (शक्ति) भावेन्द्रिय बहिरंग अंतरंग बहिरंग अंतरंग इन्द्रियों के विषय - (१) श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है । शब्द तीन प्रकार का माना गया है- जीव-शब्द, अजीव - शब्द और मिश्र-शब्द। कुछ विचारक ७ प्रकार के शब्द भी मानते हैं । (२) चक्षु-इन्द्रिय का विषय रूप संवेदना है। रूप पाँच प्रकार का है - लाल, काला, नीला, पीला और श्वेत । शेष रंग इन्हीं के सम्मिश्रण के परिणाम हैं। (३) प्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध-संवेदना है । गन्ध दो प्रकार की है - ( अ ) सुगन्ध और (ब) दुर्गन्ध। (४) रसना का विषय रसास्वादन है। रस पाँच है-कटु, अम्ल लवण, तिक्त और मधुर (५) स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्शानुभूति उपयोग (चेतना) अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड २, पृ. ५४७ दर्शन और चिन्तन, भाग १, पृ. १३४-१३५
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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