SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्याय परिवर्तन हेतु काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानना आवश्यक नहीं है। पुनः अलोकाकाश में काल के अभाव में यदि पर्याय परिवर्तन नहीं मानोगे तो फिर पर्याय परिवर्तन के अभाव में आकाश द्रव्य में द्रव्य का सामान्य लक्षण 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य' सिद्ध नहीं हो सकेगा और यदि अलोकाकाश में पर्याय परिवर्तन माना जाता है तो उस पर्याय परिवर्तन का निमित्त काल तो नहीं हो सकता क्योंकि उसका वहाँ अभाव है। इस तर्क के प्रत्युत्तर में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले आचार्यों का प्रत्युत्तर यह है कि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है उसमें अलोकाकाश एवं लोकाकाश ऐसे जो दो भेद किए जाते हैं वे मात्र औपचारिक हैं। लोकाकाश में काल द्रव्य के निमित्त से होने वाला पर्याय परिवर्तन सम्पूर्ण आकाश द्रव्य का ही पर्याय परिवर्तन है। अलोकाकाश और लोकाकाश दोनों आकाश द्रव्य के ही अंश हैं, वे एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं। किसी भी द्रव्य के एक अंश में होने वाला परिवर्तन सम्पूर्ण द्रव्य का परिवर्तन माना जाता है, अतः लोकाकाश में जो पर्याय परिवर्तन होता है वह अलोकाकाश पर भी घटित होता है और लोकाकाश में पर्याय परिवर्तन काल द्रव्य के निमित्त से होता है। अतः लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों के पर्याय परिवर्तन का निमित्त काल द्रव्य ही है। ज्ञातव्य है कि लगभग सातवीं शताब्दी से काल का स्वतन्त्र द्रव्य होना सर्वमान्य हो गया। __ जैन दार्शनिकों ने काल को अचेतन, अमूर्त (अरूपी) तथा अनस्तिकाय द्रव्य कहा है। इसका कार्य या लक्षण वर्तना माना गया है। विभिन्न द्रव्यों में जो पर्याय परिवर्तन होता है उसका निमित्त कारण काल द्रव्य होता है यद्यपि उस पर्याय परिणमन का उपादान कारण तो स्वयं वह द्रव्य ही होता है, जिस प्रकार धर्म-द्रव्य जीव, पुद्गल आदि की स्वतः प्रसूत गति का निमित्त कारण है या जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था प्राणी की अपनी शारीरिक संरचना के परिणामस्वरूप ही घटित होती है फिर भी उनमें निमित्त कारण के रूप में काल भी अपना कार्य करता है। जैनाचार्यों ने स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ, काल आदि जिस पंचक कारण की चर्चा की है उनमें काल को भी एक महत्त्वपूर्ण घटक माना गया है। जैन दार्शनिक साहित्य में काल द्रव्य की चर्चा अनेक प्रकार से की गई है। सर्वप्रथम व्यवहारकाल और निश्चयकाल ऐसे काल के दो विभाग किये गये हैं। निश्चयकाल अन्य द्रव्यों की पर्यायों के परिवर्तन का निमित्त कारण है। दूसरे शब्दों में सभी द्रव्यों की वर्तना या परिणमन की शक्ति ही द्रव्य काल या निश्चय काल है। व्यवहार काल को समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि रूप कहा गया है। संसार में भूत, भविष्य और वर्तमान सम्बन्धी जो काल व्यवहार है वह भी इसी से होता है। जैन परम्परा में व्यवहार काल का आधार सूर्य की गति ही मानी गई है, साथ ही यह भी माना गया है कि यह व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र तक ही सीमित है। देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा से ही है। मनुष्य क्षेत्र में ही समय, आवलिका, घटिका, प्रहर, रात-दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि का व्यवहार होता है। व्यक्तियों में बालक, युवा और वृद्ध अथवा नूतन, जीर्ण आदि का जो व्यवहार देखा जाता है वह सब भी काल के ही कारण हैं। वासना काल, शिक्षा काल, दीक्षा काल आदि की अपेक्षा से भी काल के अनेक भेद किये जाते हैं, किन्तु विस्तार भय से उन सबकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। इसी प्रकार कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रत्येक कर्म प्रकृति के सत्ता काल आदि की भी चर्चा जैनागमों में मिलती है। ___ संख्या की दृष्टि से अधिकांश जैन आचार्यों ने काल द्रव्य को एक नहीं, अपितु अनेक माना है। उनका कहना है कि धर्म, अधर्म, आकाश की तरह काल एक और अखण्ड द्रव्य नहीं हो सकता। काल द्रव्य अनेक हैं क्योंकि एक ही समय में विभिन्न व्यक्तियों में अथवा द्रव्यों में जो विभिन्न पर्यायों की उत्पत्ति होती है, उन सबकी उत्पत्ति का निमित्त कारण एक ही काल नहीं हो सकता। अतः काल द्रव्य को अनेक या असंख्यात द्रव्य मानना होगा। पुनः प्रत्येक पदार्थ की भूत, भविष्य की अपेक्षा से अनन्त पर्यायें होती हैं और उन अनन्त पर्यायों के निमित्त अनन्त कालाणु होंगे, अतः कालाणु अनन्त माने गये हैं। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि काल द्रव्य को असंख्य कहा गया किन्तु कालाणु अनन्त माने गये ऐसा क्यों? इसका उत्तर यह है कि काल द्रव्य लोकाकाश तक सीमित है और उसकी इस सीमितता की अपेक्षा से उसे अनन्त द्रव्य न कहकर असंख्यात द्रव्य कहा गया। किन्तु जीव अनन्त हैं और उन अनन्त जीवों की भूत, भविष्य की अनन्त पर्यायें होती हैं उन अनन्त पर्यायों में प्रत्येक का निमित्त एक कालाणु होता है अतः कालाणु अनन्त माने गये। सामान्य अवधारणा यह है कि प्रत्येक आत्म-प्रदेश, पुद्गल परमाणु और आकाश प्रदेश पर रलों की राशि के समान कालाणु स्थित रहते हैं-अतः कालाणु अनन्त हैं। राजवार्तिक आदि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कालाणुओं को अन्योन्य प्रवेश से रहित पृथक्-पृथक् असंचित दशा में लोकाकाश में स्थित माना गया है। किन्तु कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने इस मत का विरोध करते हुए यह भी माना है कि काल द्रव्य एक एवं लोकव्यापी है वह अणुरूप नहीं है। किन्तु ऐसी स्थिति में काल में भी प्रदेश-प्रचयत्व मानना होगा और प्रदेश-प्रचयत्व मानने पर वह भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आ जायेगा। इसके उत्तर में यह कहा गया कि तिर्यक्-प्रचयत्व का अभाव होने से काल अनस्तिकाय है। ऊर्ध्व-प्रचयत्व एवं तिर्यक्-प्रचयत्व की चर्चा हम पूर्व में अस्तिकाय की चर्चा के अन्तर्गत कर चुके हैं। सूक्ष्मता की अपेक्षा से कालाणुओं की अपेक्षा आकाश प्रदेश और आकाश प्रदेश की अपेक्षा पुद्गल परमाणु अधिक सूक्ष्म माने गये हैं। क्योंकि एक ही आकाश प्रदेश में अनन्त पुद्गल परमाणु समाहित हो सकते हैं। अतः वे सबसे सूक्ष्म हैं। इस प्रकार परमाणु की अपेक्षा आकाश प्रदेश और आकाश प्रदेश की अपेक्षा कालाणु स्थूल हैं। संक्षेप में काल द्रव्य में वर्तना हेतुत्व के साथ-साथ अचेतनत्व, अमूर्त्तत्व, सूक्ष्मत्व आदि सामान्य गुण भी माने गये हैं। इसी प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण जो अन्य द्रव्य में हैं, वे भी काल द्रव्य में पाये जाते हैं। काल द्रव्य में यदि उत्पाद, व्यय लक्षण नहीं रहे तो वह 9. Studies in Jainism, Edt. M. P. Marathe, p. 69 (४९)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy