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________________ ५४२ प. पुव्विं भंते ! काये भिज्जइ? कायिज्जमाणे काये भिज्जइ? कायसमयवीइक्कंते काये भिज्जइ? उ. गोयमा ! पुव्विं पि काये भिज्जइ, कायिज्जमाणे विकाये भिज्जइ, द्रव्यानुयोग-(१). प्र. भन्ते ! क्या पूर्व काया का भेदन होता है? काया रूप से पुद्गलों का ग्रहण करते समय काया का भेदन होता है? या काया का समय बीत जाने पर काया का भेदन होता है ? उ. गौतम ! पूर्व भी काया का भेदन होता है, कायिक पुद्गलों का ग्रहण करते समय भी काया का भेदन होता है, काया का समय बीत जाने पर भी काया का भेदन होता है। कायसमयवीइक्कंते वि काये भिज्जइ। -विया. स. १३, उ.७, सु. २०-२१ २५. देवाईणं तंसि-तंसि समयंसि एगा जोगपवत्ति एगे मणे,एगा वई,एगे कायवायामे। -ठाणं अ.१, सु.१३ एगे मणे देवाऽसुर-मणुयाणं तंसि-तंसि समयंसि। एगा वई देवाऽसुर-मणुयाणं तंसि-तंसि समयंसि। एगे कायवायामे देवाऽसुर-मणुयाणं तंसि-तंसि समयंसि। -ठाणं अ.१,सु.३१-३३ २६. जोगं पडुच्च कायट्ठिई परवणं प. सजोगीणं भंते ! सजोगि त्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! सजोगी दुविहे पण्णत्ते,तं जहा १. अणाइए वा अपज्जवसिए, २. अणाईए वा सपज्जवसिए। प. मणजोगीण भंते ! मणजोगि त्ति कालओ केवचिर होइ? २५. देव आदिकों की उस-उस समय में एक योग प्रवृत्ति मन एक है, वचन एक है, काय व्यापार एक है। देवों, असुरों और मनुष्यों का उस-उस चिन्तनकाल में एक मन होता है। देवों, असुरों और मनुष्यों का उस-उस वचन प्रयोग के समय एक वचन होता है। देवों असुरों और मनुष्यों का उस-उस काय व्यापार के समय एक काय-व्यापार होता है। २६. योग की अपेक्षा काय स्थिति का प्ररूपणप्र. भन्ते ! सयोगी जीव कितने काल तक सयोगी अवस्था में रहता है? उ. गौतम ! सयोगी जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. अनादि अपर्यवसित, २. अनादि सपर्यवसित। प्र. भन्ते ! मनोयोगी जीव कितने काल तक मनोयोगी अवस्था में रहता है? उ. गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक, इसी प्रकार वचनयोगी का भी काल समझना चाहिए। प्र. भन्ते ! काययोगी जीव कितने काल तक काययोगी अवस्था में रहता है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक। प्र. भन्ते ! अयोगी जीव कितने काल तक अयोगी अवस्था में रहता है? उ. गौतम ! सादि अपर्यवसित है। उ. गोयमा !जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। एवं वयजोगी वि। प. कायजोगी णं भंते ! कायजोगि त्ति कालओ केवचिरं होइ? साह! उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। प. अजोगी णं भंते ! अजोगि त्ति कालंओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! साईए अपज्जवसिए। -पण्ण.प.१८,सु.१३२१-१३२५ २७. जोगं पडुच्च अंतर काल परूवणं मणजोगिस्स जहण्णेणं अंतरं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो, एवं वइजोगिस्स वि, २७. योग की अपेक्षा अन्तर काल का प्ररूपण मनयोगी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का उत्कृष्ट अन्तर वनस्पति काल का है। इसी प्रकार वचनयोगी का भी अन्तर है। १. जीवा. पडि.९, सु. २४४
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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