SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 579
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७२ द्रव्यानुयोग-(१) के समान आकार वाली तथा वनस्पतिकायिकों की नाना आकार वाली कही गई है। इस अध्ययन में प्रत्येक जीव की इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश और अवगाहना का सम्यक् निरूपण हुआ है। पांच प्रकार की इन्द्रियों में अवगाहना की अप्रेक्षा चक्षु इन्द्रिय सबसे अल्प है तथा स्पर्शेन्द्रिय सबसे अधिक है। प्रदेशों की अपेक्षा भी चक्षुइन्द्रिय सबसे अल्प तथा स्पर्शेन्द्रिय सबसे अधिक मानी गई है। चक्षु से श्रोत्र, श्रोत्र से घ्राण, घ्राण से जिह्वा एवं जिह्वा से स्पर्श की अवगाहना एवं प्रदेश उत्तरोत्तर अधिक हैं। इन्द्रियों के पांच भेद ही इन्द्रियलब्धि के पांच भेद होते हैं एवं वे ही इन्द्रियोपयोग के पांच भेद होते हैं। इस प्रकार लब्धि एवं उपयोग के रूप में विभक्त भावेन्द्रिय भी श्रोत्रादि के भेद से पांच प्रकार की ही होती है। जिस जीव में जितनी इन्द्रियां पायी जाती हैं उसमें उतनी ही इन्द्रियलब्धि एवं इन्द्रियोपयोग पाए जाते हैं। उपयोग काल की दृष्टि से चक्षु का उपयोग काल सबसे अल्प एवं स्पर्शेन्द्रिय का उपयोग काल सबसे अधिक है। चक्षु से श्रोत्र, घ्राण एवं जिह्वा का उपयोगकाल उत्तरोत्तर अधिक है। इन्द्रिय निर्वर्तना (रचना), इन्द्रियकरण एवं इन्द्रियोपचय के भी इन्द्रियों की भांति श्रोत्रादि पांच-पांच भेद हैं। जिस जीव में जितनी इन्द्रियां होती हैं, उसमें उतनी इन्द्रियनिर्वर्तना, उतने ही इन्द्रियकरण एवं उतने ही इन्द्रियोपचय पाए जाते हैं। इन्द्रियनिर्वर्तना का काल असंख्यात समय युक्त अन्तर्मुहूर्त माना गया है। इस काल में यथायोग्य इन्द्रियों का निर्माण हो जाता है। मतिज्ञान इन्द्रियों की सहायता से होता है। मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा ये चार भेद किए जाते हैं। अवग्रह दो प्रकार का होता हैअर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। इनमें से अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों एवं मन से होने के कारण छह प्रकार का होता है तथा व्यंजनावग्रह चक्षु एवं मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होने के कारण चार प्रकार का होता है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, जिह्वेन्द्रिय व्यंजनावग्रह एवं स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रहईहा एवं अवाय ज्ञान में पांचों इन्द्रियां सहायक होने से पांच-पांच प्रकार का कहा गया है। मन से इन्हें स्वीकार करने पर इनके अन्यत्र छह-छह भेद भी प्रतिपादित हैं। जिस जीव में जो इन्द्रियां उपलब्ध हैं उसमें उन्हीं इन्द्रियों के व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा एवं अवाय ज्ञान उपलब्ध होते हैं। द्रव्येन्द्रिय एवं भावेन्द्रिय के आधार पर प्रकारान्तर से इन्द्रियों के जो दो भेद निरूपित हैं उनमें से किस जीव में कितनी द्रव्येन्द्रियां एवं कितनी भावेन्द्रियां पाई जाती हैं इसका २४ दण्डकों में इस अध्ययन में विस्तृत निरूपण हुआ है। यही नहीं अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत (भावी) भेदों के आधार पर भी २४ दण्डकों में द्रव्येन्द्रिय एवं भावेन्द्रिय की उपलब्धि का विस्तार से प्रतिपादन है, जिसमें गति-आगति एवं गणित का ज्ञान आवश्यक है। यह उल्लेखनीय है कि इसमें दो श्रोत्र, दो चक्षु, दो घ्राण, एक जिह्वा एवं एक स्पर्शन की गणना करने से द्रव्येन्द्रिय के आठ भेद माने गए हैं तथा भावेन्द्रिय के वे ही पांच भेद अनुमत हैं जो इन्द्रियों के श्रोत्रादि सामान्य पांच भेद हैं। श्रोत्रादि इन्द्रियों में अनन्त कर्कश एवं गुरु गुण हैं तथा अनन्त मृदु एवं लघु गुण हैं। अल्पबहुत्व की दृष्टि से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण हैं। उनसे श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं स्पर्शन के कर्कश गुरु गुण उत्तरोत्तर अनन्त अनन्तगुणे हैं। मृदुलघु गुणों की अपेक्षा सबसे अल्प स्पर्शेन्द्रिय के मृदुलघु गुण हैं तथा जिह्वा, घ्राण, श्रोत्र एवं चक्षु में ये उत्तरोत्तर अनन्त अनन्तगुणे हैं। . एकेन्द्रियादि जीवों की कायस्थिति पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्ट अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल पर्यन्त रहते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रियों जीवों की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट सहन सागरोपम से कुछ अधिक काल तक है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव अपर्याप्त अवस्था में जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। पर्याप्तक अवस्था में इनका काल भिन्न-भिन्न होता है। एकेन्द्रिय जीव पर्याप्तक अवस्था में जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक रहता है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के पर्याप्तक जीवों का जघन्य काल तो अन्तर्मुहूर्त ही है किन्तु उत्कृष्ट काल क्रमशः संख्यात वर्ष, संख्यात रात-दिन एवं असंख्यात मास है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही है किन्तु उत्कृष्टकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है। अन्तरकाल की अपेक्षा एकेन्द्रिय का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट अन्तरकाल वनस्पतिकाल (अनन्तकाल) है। ___ अल्पबहुत्व की अपेक्षा संसार में सबसे अल्प पंचेन्द्रिय जीव हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं द्वीन्द्रिय जीव उत्तरोत्तर अधिक हैं। द्वीन्द्रिय से अनिन्द्रिय अर्थात् सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार संसार में एकेन्द्रिय जीवों का आधिक्य है। पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक जीवों को मिलाकर भी इस अध्ययन में अल्पबहुत्व पर विचार हुआ है जिसके अनुसार सबसे अल्प चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव हैं तथा सबसे अधिक एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव हैं। सेन्द्रिय जीव उनसे विशेषाधिक हैं। ऊर्ध्वलोक आदि क्षेत्रों की अपेक्षा से भी इस अध्ययन में जीवों के अल्पबहुत्व पर विचार हुआ है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy