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________________ इन्द्रिय अध्ययन : आमुख आत्मा के लिङ्ग को इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियों से आत्मा के होने का ज्ञान होता है। यह इन्द्रिय का सामान्य लक्षण इन्द्र का अर्थ आत्मा मानकर किया जाता है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इन्द्रियाँ आभिनिबोधिक ज्ञान में सहायभूत होती हैं। आभिनिबोधिक अथवा मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान में इन्द्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। संसारी जीव साधारणतया मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान अथवा मतिअज्ञान एवं श्रुत अज्ञान से युक्त होते हैं। इसलिए इन्द्रियाँ ही उनके ज्ञान का मुख्य साधन बनती हैं। जैनदर्शन में इन्द्रिय शब्द से मन का ग्रहण नहीं होता है। मन को इसीलिए अनिन्द्रिय कहा जाता है। ___ इन्द्रियाँ पांच प्रकार की हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय (जिह्वेन्द्रिय) और स्पर्शनेन्द्रिय। जैनेतर कुछ दर्शनों में इन इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय कहा गया है तथा उनमें पाणि, पाद, पायु, उपस्थ एवं वाक् ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी स्वीकार की गई हैं। जैनदर्शन में कर्मेन्द्रियों का वर्णन अलग से कहीं नहीं हुआ है। ये कर्मेन्द्रियाँ जैनदर्शन के अनुसार शरीर के अंगोपांगों में सम्मिलित हैं। श्रोत्र से शब्द का, चक्षु से रूप का, घ्राण से गन्ध का, जिह्वा से रस का तथा स्पर्शन इन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान होता है। वर्णादि के भेदों के आधार पर पाँच इन्द्रियों के २३ विषय एवं २४० विकार माने जाते हैं। ये पाँचों प्रकार की इन्द्रियाँ द्रव्य एवं भाव के भेद से दो दो प्रकार की होती हैं। द्रव्येन्द्रिय के आगम में आठ भेद किये गये हैं-दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो घ्राण, एक जिह्वा और एक स्पर्शन। भावेन्द्रिय के पाँच भेद हैं-श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा एवं स्पर्शन। तत्वार्थ सूत्र में निर्वृत्ति एवं उपकरण द्रव्येन्द्रिय के ये दो भेद किए गए हैं तथा लब्धि एवं उपयोग भावेन्द्रिय के ये दो भेद प्रतिपादित हैं। द्रव्येन्द्रिय में से प्रत्येक बाहल्य की दृष्टि से अंगुल के असंख्यातवें भाग कही गयी है तथा प्रदेशों की अपेक्षा अनन्तप्रदेशी कही गई है। श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय विशालता (पृथुत्व) की दृष्टि से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है किन्तु जिह्वेन्द्रिय की विशालता अंगुल पृथक्त्व एवं स्पर्शनेन्द्रिय की विशालता शरीर प्रमाण कही गई है। पाँचों इन्द्रियां असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ रहती हैं। आकार या संस्थान की दृष्टि से श्रोत्रेन्द्रिय कदम्बपुष्प के आकार वाली, चक्षु इन्द्रिय मूसरचन्द्र के आकार वाली, घ्राणेन्द्रिय अतिमुक्तकपुष्प के आकार वाली, जिह्वेन्द्रिय खुरपे के आकार वाली तथा स्पर्शेन्द्रिय नाना प्रकार के आकार वाली मानी गई है। पाँच इन्द्रियों में चक्षु को छोड़कर शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी होती हैं अर्थात् वे विषयों के स्पृष्ट होने पर ही उन्हें जानती हैं, अन्यथा नहीं। जबकि चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी होती है, वह विषयों से अस्पृष्ट रहकर उनका ज्ञान कराती है। कभी इन्द्रियों के विषय एक देश से जाने जाते हैं तथा कभी सर्वदेश से जाने जाते हैं। इस दृष्टि से पाँच इन्द्रियों के विषय एकदेश एवं सर्वदेश के आधार पर दस प्रकार के हो जाते हैं। श्रोत्रेन्द्रियादि इन्द्रियों का विषय क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। पाँच इन्द्रियों के जो विषय हैं उनमें से शब्द और रूप को काम कहा जाता है तथा गन्ध, रस एवं स्पर्श को भोग कहा जाता है। पाँचों को मिलाकर काम-भोग कहा जाता है। ये काम-भोग जीव से सम्बद्ध होने के कारण जीव भी हैं और मूलतः अजीव होने के कारण अजीव भी हैं। इसी कारण से ये सचित्त भी हैं और अचित्त भी हैं। ये पौद्गलिक होने से रूपी होते हैं तथापि जीवों में होते हैं, अजीवों में नहीं। ये पुद्गल शुभ से अशुभ में एवं अशुभ से शुभ में परिणमित होते रहते हैं, यथा सुशब्द दुःशब्द में, दुःशब्द सुशब्द में, सुरूप दुरूप में, दुरूप सुरूप में, सुगन्ध दुर्गन्ध में, दुर्गन्ध सुगन्ध में, सुरस दुरस में, दुरस सुरस में एवं इसी प्रकार स्पर्श का शुभ एवं अशुभ में परिणमन होता रहता है। जिस जीव में जितनी इन्द्रियां पायी जाती हैं वह जीव उसी नाम से पुकारा जाता है, यथा जिस जीव में एक स्पर्शेन्द्रिय पायी जाती है उसे एकेन्द्रिय, जिसमें स्पर्श एवं रसना ये दो इन्द्रियां पायी जाती हैं उसे द्वीन्द्रिय, जिसमें स्पर्शन, रसना एवं घ्राण ये तीन इन्द्रियां पायी जाती हैं उसे त्रीन्द्रिय, जिसमें चक्षु सहित चार इन्द्रियां पायी जाती हैं उसे चतुरिन्द्रिय तथा जिसमें श्रोत्र सहित पांचों इन्द्रियां पायी जाती हैं उस जीव को पंचेन्द्रिय कहा जाता है। ___ चौबीस दण्डकों में नैरयिक, देव, मनुष्य एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों में पाँचों इन्द्रियां पायी जाती हैं, अतः ये सब पंचेन्द्रिय जीव हैं। तिर्यञ्चगति के चतुरिन्द्रिय जीवों में चार, त्रीन्द्रियों में तीन एवं द्वीन्द्रिय में दो इन्द्रियां रहती हैं। पृथ्वीकाय आदि जो एकेन्द्रिय जीव हैं उनमें मात्र एक स्पर्शेन्द्रिय पायी जाती है। नैरयिकों एवं देवों में स्पर्शेन्द्रिय दो प्रकार की होती है-भवधारणीय (जन्म से प्राप्त) एवं उत्तरवैक्रिय (वैक्रिय शरीर जन्य)। नैरयिकों में दोनों प्रकार की स्पर्शनेन्द्रिय हुण्डकसंस्थान वाली होती हैं जबकि देवों में भवधारणीय स्पर्शेन्द्रिय समचतुरनसंस्थान वाली एवं उत्तरवैक्रिय स्पर्शेन्द्रिय नाना संस्थान वाली कही गई हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों एवं मनुष्यों की स्पर्शेन्द्रिय छह प्रकार के संस्थानों वाली हो सकती है। वे संस्थान हैंसमचतुरन, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, वामन, कुब्जक और हुण्डक । एकेन्द्रियों की जो स्पर्शेन्द्रिय है वह भिन्न-भिन्न आकार वाली मानी गई है। पृथ्वीकायिकों की स्पर्शेन्द्रिय मसूरचन्द्र के समान, अप्कायिकों की जलबिन्दु के समान, तेजस्कायिकों की सूचीकलाप के समान, वायुकायिकों की पताका ४७१
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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