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________________ विकुर्वणा अध्ययन प. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता बाल अच्छेत्ता अमेत्ता पभू दीहीकरितए वा हस्सीकरितए वा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । प. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले. परियाइत्ता बाल छेत्ता भेत्ता पभू दीहीकरित्ताए वा हस्सीकरितए वा ? उ. हंता, गोयमा ! पभू । तं चैव णं गठि छउमत्थे मणूसे पण जाणण पास, सुमं चणं दीहीकरेज्ज वा हस्सी करेज्ज वा । जीवा. पडि, ३ . १९० (९९०-९१७) २१. पोग्गल गहणेण वण्णाइ परिणमणं प. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । प. देवे णं भंते! बाहिरए पोगले परियाइत्ता पभू एगवणं एगरूवं विउत्तिए ? उ. हंता, गोयमा ! पभू । प. से णं भंते! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ? तत्यगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्वइ ? उ. गोयमा ! णो इहगए पोग्गले परियाइत्ता बिउब्वइ. तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वाइ, अण्णत्थगए पोगले परियाइत्ता विउव्वइ । एवं एएणं गमेणं जाव १. एगवण्णं एगरूवं, २. एगवण्णं अणेगरूवं, ३. अणेगवण्णं एगारूवं, ४. अणेगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो। प. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरिवाइत्ता पभू कालग पोग्गल नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? नीलग पोग्गलं वा कालगपोग्गलताए परिणामेत्तए ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, परिवाइता पभू प. से णं भंते कि इहगाए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेइ ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेइ ? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेइ ? ४६५ प्र. भंते! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके और बाल का छेदन भेदन किए बिना उस को बड़ा या छोटा करने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गल ग्रहण करके और बाल का छेदन भेदन करके उसको बड़ा या छोटा करने में समर्थ है ? उ. हाँ, गौतम ! यह अर्थ समर्थ है। उस साधने को छद्मस्थ मनुष्य न जान सकता है और न देख सकता है। इस प्रकार से इतना शूक्ष्म छोटा या बड़ा करता है। २१. पुद्गलों के ग्रहण द्वारा वर्णादि का परिणमन प्र. भते क्या महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना एक वर्ण और एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ?. उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते! क्या बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण और एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है? उ. हाँ, गौतम ! समर्थ है। प्र. भंते! क्या वह देव इहगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्यणा करता है, तत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है या अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? उ. गौतम ! वह देव, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता, वह वहाँ के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता है। इस प्रकार इस गम द्वारा विकुर्वणा के चार भंग कहने चाहिए १. एक वर्ण वाला, एक रूप वाला, २. एक वर्ण वाला, अनेक रूप वाला, ३. अनेक वर्ण वाला, एक रूप वाला, ४. अनेक वर्ण वाला, अनेक रूप वाला। ये चार भंग । प्र. भंते! क्या महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना काले पुद्गल को नीले पुद्गल के रूप में और नीले पुद्गल को काले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु देव बाहरी पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ है। प्र. भंते! क्या वह देव इहगत पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमन करता है, तत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमन करता है या अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमन करता है ?
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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