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________________ ( ४६४ २. तत्थ णं जे से अमाइसम्मदिट्ठी उववण्णए असुरकुमारे देवे से णं उज्जुयं विउव्विस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ जावतंतहा विउव्वइति। प. दो भंते ! नागकुमारा एगंसि नागकुमारावासंसि नागकुमारदेवत्ताए उववण्णा जाव जं जहा इच्छइ नो तं तहा विउव्वइ, द्रव्यानुयोग-(१) २. इनमें से जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक असुर कुमारदेव है, वह ऋजु रूप की विकुर्वणा करना चाहता है और ऋजु रूप की ही विकुर्वणा करता है यावत् जिस रूप की विकुर्वणा करना चाहता है, उस रूप की विकुर्वणा करता है। प्र. भंते ! एक ही नागकुमारावास में दो नागकुमार नागकुमार रूप में उत्पन्न हुए, उनमें से एक नागकुमार देव यदि वह चाहे कि मैं ऋजु रूप से यावत् जिस रूप की जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उस रूप की उसी प्रकार से विकुर्वणा नहीं कर पाता है, तो भन्ते ! ऐसा, क्यों होता है? उ. गौतम ! पूर्ववत् (असुरकुमार के समान) जानना चाहिए। इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यंत विकुर्वणा जानना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक भी इसी प्रकार है। से कहमेयं भंते ! एवं? उ. गोयमा ! एवं चेव। एवं जाव थणियकुमारा। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया एवं चेव। -विया.स.१८, उ.५, सु.१२-१५ १९. पोग्गल गहणेण विकुब्वणा करणंप. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता बालं अच्छेत्ता अभेत्ता पभू गढित्तए? उ. गोयमा ! णो इणठे समढे। प. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता बालं छेत्ता भेत्ता पभू गढित्तए? उ. गोयमा ! णो इणठे समढे। प. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता बालं अच्छेत्ता अभेत्ता पभू गढित्तए? १९. पुद्गलों के ग्रहण द्वारा विकुर्वणा करणप्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना और बाल का छेदन भेदन किए बिना उसको घड़ने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना बाल का छेदन भेदन किए बिना उसको घड़ने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके किन्तु बाल का छेदन भेदन किए बिना उसको घड़ने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके और बाल का छेदन भेदन करके उसको घड़ने में समर्थ है? उ. हाँ, गौतम ! समर्थ है। उस घड़ने को छद्मस्थ मनुष्य न जान सकता है और न देख सकता है, इस प्रकार से वह सूक्ष्म घड़ता है। उ. गोयमा !णो इणढे समठे। प. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता बालं छेत्ता भेत्ता पभू गढित्तए? उ. हंता, गोयमा !पभू। तंचेवणं गंठिंछउमत्थे मणूसे ण जाणइ ण पासइ, एसुहमंचणं गढेज्जा। प. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता बालं अच्छेत्ता अभेत्ता पभू दीहीकरित्तए वा हस्सीकरित्तए वा? उ. गोयमा ! णो इणठे समढे। प. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव मह्मणभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता बाल छेत्ता भेत्ता पभू दीहीकरित्तए वा. हस्सीकरित्तए वा? उ. गोयमा ! णो इणढे समठे। प्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना और बाल का छेदन किए बिना उस को बड़ा या छोटा करने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना बाल का छेदन भेदन करके उसको बड़ा या छोटा करने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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