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________________ ( ४६६ - उ. गोयमा !णो इहगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेइ। एवं एएणं गमेणं जाव १. एगवण्णं एगरूवं, २. एगवण्णं अणेगरूवं, ३. अणेगवण्णं एगरूवं, . ४. अणेगवणं अणेगरूवं-चउभंगो। एवं कालगपोग्गलं लोहियपोग्गलत्ताए। एवं कालएणं जाव सुक्किलं। एवं नीलएणं जाव सुक्किलं। एवं लोहिएणंजाव सुक्किलं। एवं हालिद्दएणं जाव सुक्किलं। एवं एयाए परिवाडीए गंध-रस-फासा। द्रव्यानुयोग-(१) उ. गौतम ! वह देव, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमन नहीं करता, वह वहाँ के पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमन करता है, किन्तु अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमन नहीं करता। इस प्रकार इस गम द्वारा परिणमन के चार भंग कहने चाहिए१. एक वर्ण वाला, एक रूप वाला, २. एक वर्ण वाला, अनेक रूप वाला, ३. अनेक वर्ण वाला, एक रूप वाला, ४. अनेक वर्ण वाला, अनेक रूप वाला। इसी प्रकार काले पुद्गल को लाल पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है। इसी प्रकार काले पुद्गल के साथ शुक्ल पुद्गल पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार नीले पुद्गल के साथ शुक्ल पुद्गल पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार लाल पुद्गल को यावत् शुक्ल पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है। इसी प्रकार पीले पुद्गल को यावत् शुक्ल पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है। इसी प्रकार इस क्रम के अनुसार गन्ध, रस और स्पर्श के विषय में भी समझना चाहिए। (कर्कश स्पर्श वाले पुद्गल को मृदु स्पर्श वाले पुद्गल में परिणत करने में समर्थ है। इसी प्रकार दो-दो विरुद्ध गुणों को अर्थात् गुरु और लघु, शीत और उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श आदि को वह सर्वत्र परिणमाता है। इस क्रिया के साथ यहाँ इस प्रकार दो-दो आलापक कहने चाहिए,यथापुद्गलों को ग्रहण करके परिणमाता है, पुद्गलों को ग्रहण किए बिना नहीं परिणमाता है।) २३. रूपी भाव को प्राप्त देव की अरूपी विकुर्वणा के असामर्थ्य का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव, पहले रूपी होकर बाद में अरूपी की विक्रिया करने में समर्थ है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! ऐसा, क्यों कहते हैं कि महर्द्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव, पहले रूपी होकर बाद में अरूपी की विक्रिया करने में समर्थ नहीं है ? उ. गौतम ! मैं यह जानता हूँ, मैं यह देखता हूँ, मैं यह निश्चित जानता हूँ, मैं यह सर्वथा जानता हूँ; मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित समझ लिया है और मैंने यह पूरी तरह से जाना है कि (कक्खडफासपोग्गलं मउयफासपोग्गलत्ताए। एवं दो दो गरुय-लहुय, सीय-उसिण, णिद्ध-लुक्ख, फासाइं परिणामेइ। आलावगा यदोदो,तं जहा पोग्गले अपरियाइत्ता, परियाइत्ता। -विया. स.६, उ.९, सु.२-१२ २३. रूविभावं पत्तस्स देवस्स अरूवित्तविउव्वण असामत्थ परूवणंप. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महेसक्खे पुब्बामेव रूवी भवित्ता पभू अरूविं विउव्वित्ता णं चिट्ठित्तए? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ "देवेणं महि इढीए जाव महेसक्वे पुव्वामेव रूवी भवित्ता पभू अरूविं विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तए?" उ. गोयमा ! अहमेयं जाणामि,अहमेयं पासामि, अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमण्णागच्छामि, मए एयं नाय,मए एयं दि8, मए एयं बुद्ध,मए एयं अभिसमण्णागयं
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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