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________________ विकुर्वणा अध्ययन : आमुख विकुर्वणा का अर्थ है विभिन्न प्रकार के रूप आकार आदि की रचना करना। यह विकुर्वणा प्रायः वैक्रिय शरीर के माध्यम से की जाती है। भावितात्मा • अनगार, देव, नैरयिक, वायुकायिक जीव एवं बलाहकों के द्वारा की जाने वाली विकुर्वणा का इस अध्ययन में विस्तार से निरूपण हुआ है। विकुर्वणा या विक्रिया मुख्यतः तीन प्रकार की होती है-१. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर की जाने वाली २. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना की जाने वाली तथा ३. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके एवं ग्रहण न करके की जाने वाली विकुर्वणा । विकुर्वणा के तीन भेद आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण करने, ग्रहण न करने एवं मिश्रित स्थिति से भी बनते हैं। जब बाह्य एवं आन्तरिक दोनों पुद्गलों के ग्रहण करने, ग्रहण न करने एवं मिश्रित होने की स्थिति बनती है तब भी विक्रिया के तीन भेद बनते हैं। इन भेदों से यह बात स्पष्ट होती है कि विक्रिया बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करने से भी होती है, उनको ग्रहण किए बिना भी होती है तथा आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण करने एवं न करने से भी हो सकती है। ___ जो जीव एक बार अरूपी हो जाता है, अर्थात् सिद्ध बन जाता है वह फिर विकुर्वणा नहीं करता, क्योंकि विकुर्वणा के लिए वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त पुद्गलों की आवश्यकता है और सिद्ध इनसे रहित होते हैं। वे कर्म, वेद, मोह, लेश्या एवं शरीर से भी रहित होते हैं। भावितात्मा अणगार अनेक प्रकार की विकुर्वणा कर सकता है। वह ऊँचे आकाश में उड़ सकता है, गमन कर सकता है, वैभारगिरि को लांघ सकता है। वह स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा कर सकता है। वह हाथ में ढाल, तलवार आदि लेकर या पताका लेकर भी आकाश में उड़ सकता है। पल्हथी लगाकर, पर्यङ्कासन करके बैठे हुए भी वह आकाश में उड़ सकता है। भावितात्मा अणगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक बड़े अश्व, हाथी, सिंह, बाघ, भेड़िये, चीते, रीछ आदि के रूप का अभियोजन करके अनेक योजन तक जाने में समर्थ है। वह ऐसा आत्मऋद्धि से करता है, परऋद्धि से नहीं। अपने कर्म से एवं आत्म-प्रयोग से करता है परकर्म एवं पर-प्रयोग से नहीं। बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके भावितात्मा अनगार एक बड़े ग्रामरूप, नगररूप आदि की भी विकुर्वणा या रचना कर सकता है। उल्लेखनीय है कि भावितात्मा अनगार में इन विकुर्वणाओं को करने का सामर्थ्य होते हुए भी वे कभी इस प्रकार की विकुर्वणाएं नहीं करते हैं। जो विकुर्वणाएं की जाती हैं उन्हें मायी अनगार करता है, अमायी अनगार नहीं। असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके नीले पुद्गलों को काले पुद्गलों के रूप में, चिकने पुद्गलों को रूखे पुद्गलों के रूप में या इसी प्रकार एक वर्ण का दूसरे वर्ण में, एक रस का दूसरे रस आदि में परिणमन करने में समर्थ है। देवों की विकुर्वणा के प्रसंग में अनेक प्रकार के तथ्य उजागर हुए हैं। देवों के पांच प्रकार कहे गए हैं- १. भव्य द्रव्यदेव २. नरदेव, ३. धर्मदेव ४. देवाधिदेव और ५. भावदेव। इनमें से प्रथम तीन प्रकार के देव तथा भाव देव एक रूप की भी रचना करने में समर्थ हैं और अनेक रूपों (आकारों) की भी रचना करने में समर्थ हैं। वे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय रूपों की रचना (विकुर्वणा) कर सकते हैं। जिन रूपों की वे रचना करते हैं वे संख्येय, असंख्येय, सम्बद्ध, असम्बद्ध, सदृश अथवा असदृश हो सकते हैं। देवाधिदेवों में एक एवं अनेक रूपों की रचना करने का सामर्थ्य है तथापि वे कभी इस प्रकार की विकुर्वणा नहीं करते हैं। विकुर्वणा के सामर्थ्य का निरूपण करते हुए व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में असुरेन्द्र असुरराज चमर, वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि, नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण, स्तनितकुमारेन्द्र आदि अन्य भवनपति देवेन्द्रों, वाणव्यन्तर देवों, ज्योतिष्क देवों एवं देवेन्द्रों की विकुवर्णा का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन सभी देवेन्द्रों के सामानिक देवों, त्रायस्त्रिंशक लोकपालों एवं अग्रमहिषियों की विकुर्वणा शक्ति का भी इस अध्ययन में वर्णन उपलब्ध है। वैमानिक देवों के विभिन्न देवलोकों के देवेन्द्रों, उनके सामानिक देवों, लोकपालों एवं अग्रहिषियों की विकुर्वणा शक्ति का भी इसमें उल्लेख है। देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान, सनत्कुमार देवेन्द्र से लेकर अच्युत देवलोक के देवेन्द्र एवं उनके सामानिक देवों, लोकपालों एवं अग्रमहिषियों की विकुर्वणा का वर्णन भी यहाँ उपलब्ध है। देवों की विकुर्वणा का यह वर्णन बड़ा आश्चर्यजनक एवं रोचक है। भगवान महावीर एवं गणधरों के मध्य हुई वार्ता में इन देवों की विकुर्वणा की शक्ति का उद्घाटन हुआ है। यह भी निर्देश है कि विभिन्न देवेन्द्रों देवों एवं देवियों की विकुर्वणा की व्यापक शक्ति विद्यमान होने पर भी वे कभी इस प्रकार की विकुर्वणा नहीं करते हैं। नागकुमारेन्द्र जैसे कुछ देवेन्द्रों में इतनी शक्ति है कि वे एक जम्बूद्वीप क्या संख्यात द्वीप समुद्रों को अपनी विकुर्वणा: से भर सकते हैं, किन्तु वे कभी ऐसा करते नहीं हैं। ४४२
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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