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________________ विकुर्वणा अध्ययन ४४३ देव दो प्रकार के हैं-१.मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक एवं २. अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक। इनमें से अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव यथेच्छ विकुर्वणा कर सकते हैं किन्तु मायी मिथ्यादृष्टि देव यथेच्छ विकुर्वणा नहीं कर पाते। जैसे एक ही असुरकुमारावास में दो असुरकुमार उत्पन्न हुए, उनमें से जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव है वह ऋजु रूप की विकुर्वणा करना चाहता है, किन्तु वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है और जब वह वक्ररूप की विकुर्वणा करना चाहता है तो ऋजुरूप की विकुर्वणा हो जाती है। अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव के साथ ऐसा नहीं होता। वह जब ऋजु रूप की विकुर्वणा करना चाहता है तो ऋजुरूप की विकुर्वणा होती है और जब वह वक्र रूप की विकुर्वणा करना चाहता है तब वक्र रूप की विकुर्वणा होती है। महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण और एक रूप (आकार) की विकुर्वणा कर सकते हैं। इस प्रकार विकुर्वणा के तीन भंग और हैं- एक वर्ण अनेक रूप, अनेक वर्ण एक रूप एवं अनेक वर्ण अनेक रूप। वे वाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके काले पुद्गल को नीले पुद्गल के रूप में तथा नीले पुद्गल को काले पुद्गल के रूप में परिणत कर सकते हैं। इस प्रकार वे एक वर्ण को दूसरे वर्ण में, एक रस को दूसरे रस में, एक गन्ध को दूसरे गन्ध में तथा एक स्पर्श को दूसरे स्पर्श में परिणत करने में समर्थ हैं। रूपीभाव को प्राप्त ये देव अरूपी विकुर्वणा नहीं कर सकते वैमानिक देव एक रूप की विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं और अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं। नवौवेयक एवं पांच अनुन्तर विमानवासी देव भी इस प्रकार की विकुर्वणा करने में समर्थ होते हैं, किन्तु उन्होंने कभी ऐसी विकुर्वणा नहीं की, करते भी नहीं है और न ही करेंगे। महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव हजार रूपों का विकुर्वणा करके परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करने में समर्थ है, किन्तु वैक्रियकृत वे शरीर एक ही जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, अनेक जीवों के साथ नहीं। उन शरीरों के बीच का अन्तराल भाग भी एक ही जीव से सम्बद्ध होता है, अनेक जीवों से सम्बद्ध नहीं होता। देवों एवं असुरों में जब संग्राम छिड़ जाता है तो देव जिस तृण, काष्ठ, पत्ते, कंकर आदि को स्पर्श करते हैं, वही वस्तु उन देवों का शस्त्ररत्न बन जाती है, किन्तु असुरों के लिए यह बात शक्य नहीं है। असुर कुमारों के सदैव बैक्रियकृत शस्त्ररत्न होते हैं। नैरयिक जीव भी विकुर्वणा करते हैं। प्रथम नरक से लेकर पंचम नरक तक के नैरयिक एक रूप की भी विकुर्वणा करते हैं और अनेक रूपों की भी विकुर्वणा करते हैं। एक रूप की विकुर्वणा करते हुए वे एक महान् मुद्गर यावत् भिंडमाल रूप की विकुर्वणा करते हैं। अनेक रूपों की विकुर्वणा करते हुए वे अनेक मुद्गर रूपों यावत् अनेक भिंडमाल रूपों की विकुर्वणा करते हैं। वे संख्येय, सदृश एवं सम्बद्ध रूपों की विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करने से उनकी वेदना की उदीरणा होती है। वह वेदना उग्र, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, दुःखद एवं असह्य होती है। छठी एवं सातवीं नरक के नैरयिक गोबर के कीडों के समान बहुत बड़े वजमय मुख वाले रक्तवर्ण कुंथुओं के रूपों की विकुर्वणा करते हैं। वायुकाय के जीव में भी वैक्रिय शरीर होता है, इसलिए वह भी विकुर्वणा कर सकता है। वह एक बड़ी पताका के आकार जैसे रूप की विकुर्वणा करके एक दिशा में अनेक योजन तक गति कर सकता है। वायुकाय का जीव ऊँची पताका एवं झुकी पताका इन दोनों के आकार से गति करने में समर्थ है। वह अपनी ऋद्धि अपने कर्म एवं प्रयोग से ही ऐसा करने में समर्थ है। बलाहक (मेघपंक्ति) एक बड़े स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका के रूप में परिणत होने में समर्थ है। वह भी जितनी विक्रियाएं करता है उन्हें आत्मऋद्धि, आत्मकर्म एवं आत्मप्रयोग से ही करता है। वह बड़े यान के रूप में परिणत होकर भी अनेक योजन तक जा सकता है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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