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________________ ४१८ णवर-तासि णं सेढी बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स ।' ६. २४ वेमाणियाणं एवं चैव । णवरं-तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबिइयवग्गमूलं तवग्गमूलपडुप्पण्णं, अवर्ण अंगुल्तइयवग्गमूलयणपमाणमेत्ताओ सेडीओ । सेसं तं चैव २०. चडवीसदंडगसरीराणं वण्णरस परूवणं दं. १ २४. रइयाणं सरीरगा पंचवण्णा, पंचरसा पण्णत्ता, तं जहा किण्हा जाय सुकिला, तिता जाब महुरा एवं निरंतर जाव वैमाणियाण १ दं. १-२४ पण्णत्ता, तं जहा १. तेयए चेव, २ . कम्मए चेव । एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं । विक्खंभसूई - पण्ण. प. १२, सु. ९११-९२४ २१. बायर बोदिंधर कलेवरे वण्णा परूवणंओरालियासरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते तं जहाकिण्हे जाव सुक्किले, 1 तित्ते जाव महुरे । एवं जाव कम्मगसरीरे । सव्वे वि णं बायरबोंदिधरा कलेवरा पंचवण्णा, पंचरसा, दुगंधा, अट्ठफासा २३. तिसुलोसुबिसरीराणं पत्रवर्ण -ठाण. अ. ५, उ. १, सु. ३९५ २२. विग्गहगइसमावनगा चउवीसदण्डएस सरीराविग्गहगहसमावण्णगाणं नेरइयाणं दो सरीरगा -ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३९५ उढलोगे णं चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता, तं जहा १. अणु कालदारे, सु. ४२५ २. अणु. कालदारे, सु. ४२६ - ठाणं. अ. २, उ. १, सु. ६५/२ १. पुढविकाइया, २. आउकाइया, ३. वणस्सइकाइया, ४. उराला य तसा पाणा । अहेलोगे तिरियलोए वि एवं चेव । २४. उन्हं कायाणं एगसरीर नो सुपस्संचउण्डमेगं सरीरं नो सुपरसं भवद्द, तं जहा - ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३३१/१ द्रव्यानुयोग - (१) विशेष-उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची प्रतर के पूरण और अपहार में दो सौ छप्पन अंगुल वर्गप्रमाण खण्ड रूप है। दं. २४ वैमानिकों के बद्ध-मुक्त शरीरों का कथन भी इसी प्रकार है। विशेष उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, तृतीय वर्गमूल से गुणित अंगुल के द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है। अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घन प्रमाण बराबर श्रेणियाँ हैं। शेष सब कथन पूर्ववत् है। २०. चौबीसदंडकों के शरीर के वर्ण रस का प्ररूपण दं. १-२४. नैरयिकों के शरीर पांच वर्ण और पांच रस वाले कहे गए हैं, यथा १. कृष्ण यावत् शुक्ल । १. तिक्त यावत् मधुर । इसी प्रकार निरन्तर वैमानिकों पर्यन्त के वर्ण रस जानने चाहिए। २१. बादर शरीर धारक कलेवरों के वर्णादि का प्ररूपणऔदारिक शरीर में पांच वर्ण और पांच रस कहे गए हैं, १. कृष्ण यावत् शुक्ल । १. तिक्त यावत् मधुर । इसी प्रकार कार्मण शरीर पर्यन्त वर्ण रस आदि कहना चाहिए। सभी स्थूल शरीर धारण करने वाले पांच वर्ग, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्श वाले होते हैं। २२. विग्रह गति प्राप्त चौबीसदण्डकों में शरीर १-२४ हैं, , यथा १. तैजस्, २. कार्मण। इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहने चाहिए। विग्रह गति प्राप्त नैरयिकों के दो शरीर कहे गए , यथा २३. तीनों लोक में द्विशरीर वालों का प्ररूपण ऊर्ध्व लोक में चार द्विशरीरी अर्थात् दूसरे जन्म में सिद्ध (गतिगामी) हो सकते हैं, यथा १. पृथ्वीकायिक जीव, २. अप्कायिक जीव, ३. वनस्पतिकायिक जीव, ४. उदार त्रस प्राणीपंचेन्द्रिय जीव । अधोलोक और तिर्यक् लोक में भी इसी प्रकार है। २४. चारकायिकों का एक शरीर सुपश्य नहीं है चार कायों के जीवों का एक शरीर सुपश्य (सहज दृश्य) नहीं होता, यथा ३. (क) विया. स. ११, उ. १, सु. १९ (ख) विया. स. ११, उ. २, सु. ८
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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