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________________ शरीर अध्ययन ४०९ एवं चउवीसं दंडगा भाणियव्वा। इसी प्रकार चौवीस दंडकों में कहना चाहिए। णवरं-जाणियव्वं जस्स जं अत्थि। विशेष-जिसके जो हो वह जानना चाहिए। -विया. स. २०, उ.७, सु. १८ १५. जीव-चउवीसदंडएसु सरीराइत्ताइ ठियऽट्ठिइ दव्य गहण १५. जीव चौवीस दंडकों में शरीरादि के लिए स्थित अस्थित परूवणं द्रव्यों के ग्रहण का प्ररूपणप. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं ओरालियसरीरत्ताए गेण्हइ प्र. भन्ते ! जीव जिन पुद्गलद्रव्यों को औदारिक शरीर के रूप में ताई किं ठियाइं गेण्हइ,अठियाइं गेण्हइ? ग्रहण करता है, क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है? उ. गोयमा ! ठियाई पि गेण्हइ, अठियाई पि गेण्हइ। उ. गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। प. ताई भंते ! किं दव्वओ गेण्हइ, खेत्तओ गेण्हइ, कालओ प्र. भन्ते ! (जीव) क्या उन द्रव्यों को द्रव्य से ग्रहण करता है, क्षेत्र गेण्हइ, भावओ गेण्हइ? से ग्रहण करता है, काल से ग्रहण करता है या भाव से ग्रहण करता है? उ. गोयमा ! दव्वओ वि गेण्हइ, खेत्तओ वि गेण्हइ, कालओ उ. गौतम ! वह उन द्रव्यों को द्रव्य से भी ग्रहण करता है, क्षेत्र से वि गेण्हइ, भावओ वि गेण्हइ। भी ग्रहण करता है, काल से भी ग्रहण करता है और भाव से भी ग्रहण करता है। ताई दव्वओ अणंतपएसियाई दव्वाइं, द्रव्य से वह अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाइं, क्षेत्र से असंख्येय प्रदेशावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है। एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहाररुदेसए जाव जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम आहार उद्देशक में कहा निव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय है तदनुसार यहां भी निर्व्याघात से छहों दिशाओं से और चउदिसिं सिय पंचदिसिं। व्याघात से कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से पुदगलों को ग्रहण करता है पर्यंत कहना चाहिए। प. जीवेणं भंते ! जाइं दव्वाइं वेउव्वियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई प्र. भन्ते ! जीव जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता किं ठियाइं गेण्हइ अठियाई गेण्हइ? है, तो क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है? उ. गोयमा ! एवं चेव उ. गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए। णवरं-नियमं छद्दिसिं। विशेष-(जिन द्रव्यों को वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण करता है) वे नियम से छहों दिशाओं से ग्रहण करता है। एवं आहारगसरीरत्ताए वि। आहारक शरीर के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। प. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं तेयगसरीरत्ताए गेण्हइ ताई कि प्र. भन्ते ! जीव जिन द्रव्यों को तैजस् शरीर के रूप में ग्रहण करता ठियाइं गेण्हइ अठियाइं गेण्हइ? है क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है? उ. गोयमा ! ठियाइं गेण्हइ, नो अठियाइं गेण्हइ। उ. गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता है। सेसं जहा ओरालियसरीरस्स। शेष कथन औदारिक शरीर के समान समझना चाहिए। कम्मगसरीरे एवं चेव जाव भावओ विगेण्हइ। कार्मण शरीर के विषय में भी भाव से भी ग्रहण करता है पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। प. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं दव्वओ गेण्हइ ताई किं प्र. भन्ते ! जीव जिन द्रव्यों को द्रव्य से ग्रहण करता है तो क्या एगपएसियाई गेण्हइ दुपएसियाई गेण्हइ जाव एक प्रदेश वालों को ग्रहण करता है या दो प्रदेश वालों को अणंतपएसियाई गेण्हड? ग्रहण करता है यावत् अनंतप्रदेश वालों को ग्रहण करता है? उ. गोयमा ! णो एगपएसियाई गेण्हइ जाव णो उ. गौतम ! एक प्रदेशी को ग्रहण नहीं करता है यावत् असंख्यात असंखेज्जपएसियाई गेण्हइ, अणंतपएसियाइं गेण्हइ। प्रदेशी को भी ग्रहण नहीं करता है किन्तु अनन्त प्रदेशी को ग्रहण करता है। १. आहार अध्ययन में विस्तृत वर्णन देखें वहां आहारेइ शब्द का प्रयोग है उसके स्थान पर “गेण्हइ" शब्द का प्रयोग करें। (पण्य. प. २८, उ. १.सु. १७९७-१७९९)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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