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________________ ४१० एवं जहा भासापदे जाव आणुपुव्विं गेण्हइ, नो अणाणुपुव्विं गेण्हइ। प. ताई भंते ! कइदिसिं गेण्हइ ? ' उ. गोयमा ! निव्वाघाएणं छद्दिसिं गेणहइ, वाघायं सिय तिदिसं, सिय चउदिसं, सिय पंचदिसं। सेसंजहा ओरालिय सरीरस्स। प. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं सोइंदियत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाइं गेण्हइ अठियाइं गेण्हइ? द्रव्यानुयोग-(१) शेष वर्णन भाषापद में कहे अनुसार 'आनुपूर्वी से ग्रहण करता है अनानुपूर्वी से ग्रहण नहीं करता है', पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भंते ! जीव उन द्रव्यों को कितनी दिशाओं से ग्रहण करता है ? उ. गौतम ! व्याघात न हो तो छहों दिशाओं से ग्रहण करता है और व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से ग्रहण करता है। शेष कथन औदारिक शरीर के समान समझना चाहिए। प्र. भन्ते ! जीव जिन द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में ग्रहण करता है तो क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है? उ. गौतम ! वैक्रिय शरीर के समान समझना चाहिए। इस प्रकार रसनेन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिए। स्पर्शेन्द्रिय के विषय में औदारिक शरीर के समान समझना चाहिए। मनोयोग का वर्णन कार्मणशरीर के समान समझना चाहिए। विशेष-वह नियम से छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार वचनयोग के द्रव्यों के विषय में भी समझना उ. गोयमा ! जहा वेउव्वियसरीरे। एवं जाव जिभिंदियत्ताए फासिंदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं। मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं णवरं-नियम छदिसिं। एवं वइजोगत्ताए वि। चाहिए। कायजोगत्ताए जहा ओरालियसरीरस्स। काययोग के रूप में ग्रहण का कथन औदारिक शरीर के समान है। प. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं आणपाणुत्ताए गेण्हइ ताई किं प्र. भंते ! जीव जिन द्रव्यों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण ठियाई गेण्हइ अठियाई गेण्हइ? करता है तो क्या स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है? उ. गोयमा ! जहेव ओरालियसरीरत्ताए जाव सिय पंचदिसिं। उ. गौतम ! औदारिक शरीर सम्बन्धी कथन के समान 'कदाचित् पांचों दिशा से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है पर्यन्त कहना चाहिए। केइ चउवीसदंडएणं एयाणि पयाणि भणंति जस्स कई आचार्य चौबीस दण्डकों में भी इन आलापकों का वर्णन जं अत्थि । -विया.स.२५,उ.२,सु.११-१६ करते हैं किन्तु जिसके जो (शरीर, इन्द्रिय, योग आदि) हो वही उसके लिए यथायोग्य कहना चाहिए। १६. चउवीसदंडएसु सरीर परूवणं १६. चौवीस दण्डकों में शरीर की प्ररूपणाप. दं.१.णेरइयाणं भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता? प्र. दं.१. भन्ते ! नैरयिकों के कितने शरीर कहे गए हैं? उ. गोयमा ! तओ सरीरया पण्णत्ता,तं जहा उ. गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गए हैं, यथा१.वेउव्विए,२.तेयए,३. कम्मए। १. वैक्रिय, २. तेजस्, ३. कार्मण। दं. २-११. एवं असुरकुमाराण वि जाव दं.२-११. इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त थणियकुमाराणं३। शरीरों का प्ररूपण करना चाहिए। प. दं. १२-१९. पुढविक्काइयाणं भंते ! कइ सरीरया प्र. दं. १२-१९. भन्ते ! पृथ्वीकायिकों के कितने शरीर कहे पण्णत्ता? गए हैं? उ. गोयमा ! तओ सरीरया पण्णत्ता,तं जहा उ. गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गए हैं, यथा१.ओरालिए, २. तेयए, ३. कम्मए। १.औदारिक, २. तैजस्, ३. कार्मण। १. भाषा अध्ययन में विस्तृत वर्णन देखें (ग) ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २०७४ . (पण्ण. प.११,सु.८७७) (१-२३) (घ) विया.स.१,उ.५, सु.१२ (ख) जीवा. पडि. १, सु.१३ (१) २. (क) अणु. कालदारे, सु.४०६ ३. (क) अणु . कालदारे, सु.४०७ (ग) जीवा. पडि.१,सु.१५ (ख) जीवा. पडि. १, सु. ३२ (ख) विया. स. १, उ.५, सु. २९ (घ) जीवा. पडि.१, सु. १६ (ङ) ठाणं. अ.३, उ.४, सु. २०७
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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