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________________ शरीर अध्ययन ४०५ एवं वाणमंतराणं अट्ठविहाणं,जोइसियाणं पंचविहाणं। वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता,तं जहा१.कप्पोवया, २.कप्पाइया य। कप्पोवया बारसविहा,तेसिं पि एवं चेव दुगओ भेदो। कप्पाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा१.गेवेज्जगा य, २. अणुत्तरो ववाइया य। गेवेज्जगा णवविहा, अणुत्तरोववाइया पंचविहा, एएसिं पज्जत्तापज्जत्ताभिलावेणं दुगओ भेदो। -पण्ण. प. २१, सु.१५१४-१५२० ९. सामित्त विवक्खया आहारगसरीरस्स विविह भेया प. आहारगसरीरेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? उ. गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। प. जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणूस-आहारगसरीरे, अमणूस-आहारगसरीरे? उ. गोयमा ! मणूस-आहारगसरीरे,णो अमणूस-आहारगसरीरे। प. जइ मणूस आहारगसरीरे किं सम्मुच्छिम मणूस आहारगसरीरे, गब्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे? गोयमा ! णो सम्मुच्छिम मणूस आहारगसरीरे, गब्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे। प. जइ गब्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे, किं कम्मभूमग गब्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे, अकम्मभूमग गब्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे, अंतरदीवग गब्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे, गोयमा ! कम्मभूमग गब्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे, णो अकम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणूस-आहारगसरीरे, इसी तरह आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के, पांच प्रकार के ज्योतिष्क देवों के वैक्रिय शरीर होता है। वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. कल्पोपपन्न, २. कल्पातीत। कल्पोपपन्न बारह प्रकार के हैं उनके भी दो-दो भेद होते हैं। कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं, यथा१. ग्रैवेयकवासी, २. अनुत्तरोपपातिक। ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के होते हैं और अनुत्तरोपपातिक देव पांच प्रकार के होते हैं। इन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक के अभिलाप से दो-दो भेद कहने चाहिए। ९. स्वामित्व की विवक्षा से आहारक शरीर के विविध भेद प्र. भन्ते ! आहारक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह एक ही प्रकार का कहा गया है। प्र. यदि आहारक शरीर एक प्रकार का कहा गया है तो वह आहारक शरीर मनुष्य के होता है या अमनुष्य के होता है? उ. गौतम ! मनुष्य के आहारक शरीर होता है, किन्तु अमनुष्य के आहारक शरीर नहीं होता है प्र. यदि मनुष्य के आहारक शरीर होता है तो क्या सम्मूर्छिम मनुष्य के होता है या गर्भज मनुष्य के होता है? उ. गौतम ! सम्मूर्छिम मनुष्य के आहारक शरीर नहीं होता है किन्तु गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है। प्र. यदि गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है तो क्या कर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है या अकर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है या अन्तरद्वीपज मनुष्य के आहारक शरीर होता है ? उ. गौतम ! कर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है। उ. किन्तु न तो अकर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है और न अन्तरद्वीपज गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है। प्र. यदि कर्मभूमिक कर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है, तो क्या संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के होता है या असंख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के होता है? णो अंतरदीवग-गब्भवक्कंतिय-मणूस-आहारगसरीरे। प. जइ कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणूस-आहारगसरीरे, किं संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणूसआहारगसरीरे, असंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणूस आहारगसरीरे? उ. गोयमा ! संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय मणूस-आहारगसरीरे, णो असंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणूस-आहारगसरीरे। उ. गौतम ! संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है, किन्तु असंख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के नहीं होता है। १. सम.सु. १५२
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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