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________________ आहार अध्ययन ३८९ तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए एत्थ णं मेहुण वत्तिए नाम संजोगे समुप्पज्जइ,एवं चेव। नाणत्तं-अंडं वेगता जणयंति, पोयं वेगता जणयंति, से अंडे उब्भिज्जमाणे इत्थि वेगता जणयंति, पुरिसं वेगता जणयंति, नपुंसगं वेगता जणयंति। ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेंति, अणुपुब्वेणं वुड्ढा वणस्सइकायं तस थावरे य पाणे ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्वप्पणाए आहारं आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणियाणं अहीणं जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव भवंतीति मक्खायं। अहावरं पुरक्खायं नाणाविहाणं भुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं,तं जहागोहाणं, नउलाणं, सेहाणं, सरडाणं, सल्लाणं, सरयाणं, खोराणं, घरकोइलियाणं, विस्संभराणं, मूसगाणं, मंगुसाणं, पयलाइयाणं, विरालियाणं,जोहाणं, चाउप्पाइयाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियव्वं जाव सव्वप्पणाए आहारं आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं नाणाविहाणं भुयपरिसप्प थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं गोहाणं जाव चाउप्पाइयाणं सरीराणाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। वे जीव अपने-अपने उत्पत्ति योग्य बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष के परस्पर मैथुन प्रत्ययिक संयोग होने पर स्व-स्व कर्मानुसार उत्पन्न होते हैं। शेष बातें पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। किन्तु यह भिन्नता है-कई अंडज होते हैं और कई पोतज होते हैं। अंडे के फूट जाने पर उसमें से कोई स्त्री रूप में, कोई पुरुष रूप में और कोई नपुंसक रूप में पैदा होता है। वे जीव बाल्यावस्था में वायुकाय (हवा) का आहार करते हैं, क्रमशः बड़े होने पर वे वनस्पतिकाय तथा अन्य त्रस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं, इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों को यावत सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। उन अनेकविध जातिवाले उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के सर्प यावत महोरगों के शरीर नाना वर्णादि वाले होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकर देव ने कहा है। इसके पश्चात् अनेक प्रकार के भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों का वर्णन इस प्रकार है, यथागोह, नेवला, सेह, सरट, सल्लक, सरथ, खोर, गृहकोकिला (छिपकली) विषम्भरा, मूषक, (चूहा) मंगूस, पदलातिक, विडातिक, जोध और चातुष्पद। उन जीवों की उत्पत्ति भी अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष के मैथुन प्रत्ययिक संयोग होने पर स्व-स्व कर्मोनुसार होती है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् उरपरिसर्प के समान जानना यावत् सर्वात्मना आहार लेते हैं। इसके अतिरिक्त नाना प्रकार के गोह से चातुष्पद पर्यन्त के भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के शरीर नाना वर्णादि वाले होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकर देव ने कहा है। इसके पश्चात अनेक प्रकार के खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों का वर्णन इस प्रकार है, यथा-चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी। उन जीवों की उत्पत्ति भी अपने-अपने बीज और अवकाश से स्त्री पुरुष के मैथुन प्रत्ययिक संयोग से होती है। शेष वर्णन उरपरिसर्प के अनुसार जान लेना चाहिए। किन्तु भिन्नता यह है कि वे प्राणी बाल्यावस्था प्राप्त होने पर माता के शरीर के रस का आहार करते हैं। फिर क्रमशः बड़े होकर वनस्पतिकाय तथा त्रस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं, इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का सर्वात्मना आहार कर लेते हैं, अन्य अनेक प्रकार के चर्मपक्षी से विततपक्षी पर्यन्त के खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के शरीर नाना वर्णादि वाले होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है। खहयरपंचिंदिय अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं तिरिक्खजोणियाणं,तं जहा चम्मपक्खीणं, लोमपक्खीणं, समुग्गपक्खीणं, विततपक्खीणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए जहा उरपरिसप्पाणं नाणत्तं ते जीवा डहरा समाणा माउं गात्तसिणेहं आहारेंति, अणुपुब्वेणं वुड्ढा वणस्सइकायं तस यावरे य पाणे। ते जीवा आहारेंति, पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्बप्पणाए आहारं आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं नाणाविहाणं खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चम्मपक्खीण जाव विततपक्खीणं सरीरा णाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। -सूय.सु.२, अ.३, सु.७३३-७३७ ३१.विगलिंदियाणं उप्पत्ति वुड्ढि आहार परूवणं अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता नाणाविहजोणिया, नाणाविहसंभवा, नाणाविहवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा कम्मोवगा कम्पनिदाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणूसुयत्ताए विउटैंति, ते जीवा तेसिं नाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीर जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्बप्पणाए आहारं आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं तस थावरजोणियाणं अणूसुयाणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। ३१.विकलेन्द्रियों के उत्पत्ति वृद्धि आहार का प्ररूपण इसके बाद यह वर्णन है कि-इस जगत् में कई प्राणी नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वे अनेक प्रकार की योनियों में स्थित रहते हैं, विविध योनियों में आकर संवर्द्धन पाते हैं। नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न स्थित और संवर्द्धित वे जीव अपने पूर्ववत् कर्मानुसार निदान करके अनेक प्रकार के त्रस स्थावर प्राणियों के सचित्त अचित्त शरीरों में आश्रित होकर उत्पन्न होते हैं, वे जीव उन अनेक प्रकार के बस स्थावर प्राणियों के रस का आहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं एवं दूसरे भी त्रस स्थावर योनियों में उत्पन्न विभिन्न वर्णादि युक्त शरीर वाले होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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