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________________ ३८८ ते जीवा डहरा समाणा मातुं खीरं सप्पिं आहारेंति, अणुपुब्वेणं वुड्ढा ओयणं कुम्मासं तस थावरे य पाणे ते जीवा आहारेंति, पुढविसरीरं जाव वणस्सइसरीरं जाव सब्बप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं मणुस्साणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीराणाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं । -सूय. सु. २, अ. ३, सु.७३२ २९.पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उप्पत्ति वुड्ढि आहार परूवणं अहावरं पुरक्खायं-णाणाविहाणं जलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं,तं जहा-मच्छाणं जाव सुंसमाराणं। तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए तहेव जाव तओ एगदेसेणं ओयमाहारेंति, अणुपुव्वेणं वुड्ढा पलिपागमणुचिण्णा तओ कायाओ अभिनिव्वट्टमाणा अंडं वेगता जणयंति, पोयं वेगता जणयंति, से अंडे उब्भिज्जमाणे इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं वेगया जणयंति, नपुंसगं वेगया जणयंति। ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारेंति, अणुपुव्वेणं वुड्ढा वणस्सइकार्य तस-थावरे य पाणे ते जीवा आहारेंति, पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सव्वप्पणाए आहारं आहारैति । अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवंतीति मक्खायं। । द्रव्यानुयोग-(१)) वे जीव शिशु होकर माता के दूध और घी का आहार करते हैं। क्रमशः बड़े होकर वे जीव चावल कुल्माष एवं त्रस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी के शरीरों का यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं तथा दूसरे भी कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज, आर्य और म्लेच्छ आदि अनेकविध मनुष्यों के शरीर नाना वर्णादि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं ऐसा तीर्थकर देव ने कहा है। २९. पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक की उत्पत्ति वृद्धि आहार का प्ररूपण इसके पश्चात् अनेक प्रकार के जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का वर्णन इस प्रकार है, यथा-मत्स्य यावत् सुसुमार। वे जीव अपने बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष का संयोग होने पर स्वस्वकर्मानुसार पूर्वोक्त प्रकार के गर्भ में उत्पन्न होते हैं और उसी प्रकार यावत माता के एकदेश ओज का आहार करते हैं। इस प्रकार क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होकर गर्भ के परिपक्व होने पर माता की काया से बाहर निकल कर कोई अण्डे के रूप में, कोई पोतज के रूप में उत्पन्न होते हैं । जब वह अंडा फूट जाता है तो कोई स्त्री (मादा) के रूप में, कोई पुरुष (नर) के रूप में और कोई नपुंसक के रूप में उत्पन्न होता है। वे जलचर जीव बाल्यावस्था में जल के रस का आहार करते हैं, तत्पश्चात् क्रमशः बड़े होने पर वनस्पतिकाय तथा त्रस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी शरीरों का यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं तथा दूसरे भी नाना प्रकार के मछली से सुसुमार पर्यन्त के जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों के शरीर नाना वर्णादि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकर देव ने कहा है। इसके पश्चात् अनेक जाति वाले चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय र्यञ्चों का वर्णन इस प्रकार है, यथाकई एक खुर वाले, दो खुर वाले, गण्डीपद (हाथी आदि) सिंह आदि नखयुक्त पद वाले होते हैं, वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष के परस्पर मैथुन प्रत्ययिक संयोग होने पर स्व-स्व कर्मानुसार उत्पन्न होते हैं, वे सर्वप्रथम दोनों के रस का आहार करते हैं, आहार करके वे जीव स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव (गर्भ में) माता के ओज (रज) और पिता के शुक्र का आहार करते हैं। शेष सब वर्णन पूर्ववत् मनुष्यों के समान समझ लेना चाहिए यावत् इनमें कोई स्त्री (मादा) के रूप में, कोई नर के रूप में और कोई नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव बाल्यावस्था में माता के दूध और घृत का आहार करते हैं क्रमशः बड़े होकर वे वनस्पतिकाय का तथा दूसरे त्रस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे प्राणी पृथ्वी के शरीरों का यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। उन अनेकविध जाति वाले चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक एकखुर यावत् नखयुक्त पद वाले जीवों के नाना वर्णादि वाले शरीर होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकर देव ने कहा है। इसके पश्चात् अनेक प्रकार की जाति वाले उरपरिसर्प (छाती के बल सरक कर चलने वाले) स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों का वर्णन इस प्रकार है, यथासर्प, अजगर, आशालिक और महोरग। अहावरं पुरक्खायं नाणाविहाणं चउप्पयथलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं,तं जहाएगखुराणं,दुखुराणं, गंडीपदाणं सणप्फयाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए एत्थणं मेहुणवत्तिए नामं संजोगे समुप्पज्जइ,ते दुहओ वि सिणेहिं संचिणंति संचिणित्ता तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए विउटति, ते जीवा माउं ओयं पिउं सुकं एवं जहा मणुस्साणं जाव इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं वेगया जणयंति, नपुंसगं वेगया जणयंति। ते जीवा डहरा समाणा मातु खीरं सप्पिं आहारेंति, अणुपुब्वेणं वुड्ढा वणस्सइकायं तस थावरे य पाणे ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ शरीरं जाव सव्वप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुरा-णं जाव सणप्फयाणं सरीरानाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्वायं। अहावरं पुरक्खायं नाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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