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________________ ३९० एवं दुरूवसंभवत्ताए। एवं खुलदुगत्ताए। -सुय. सु.२ अ.३, सु.७३८ ३२. आउ-अगणि-वाउ-पुढवीकाईयाणं उप्पत्ति बुड्ढि आहार परूवणंअहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं नाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं वातसंसिद्धं वातसंगहितं वा वातपरिगतं उडढंवाएसु उड्ढभागी भवइ, अहेवाएसु अहेभागी भवइ, तिरियंवाएसु तिरियभागी भवइ,तं जहा ओसा, हिमए, महिया,करए,हरतणुए, सुद्धोदए। ते जीवा तेसिं नाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सव्वप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं तस थावर जोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीराणाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उदगजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा तस थावर जोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउटृति, ते जीवा तेसिं तस थावर जोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति,ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्बप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं तस-थावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवंतीति मक्खायं। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउट्टति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्बप्पणाए आहार आहारेंति।अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उदगजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु उदएसु तसपाणत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, जे जीवा आहारेंति पुढविसरीर जाव वणस्सइ सरीरं जाव सव्वप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं तस पाणाणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। अहावर पुरक्खायं इहेगइया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए । द्रव्यानुयोग-(१)) इसी प्रकार (मनुष्य के मलमूत्र आदि में) कृमि केंचुआ आदि रूप में त्रस प्राणी उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार जीवित गाय, भैंस आदि की चमड़ी पर सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होते हैं। ३२. अप्-तेजस्-वायु और पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति वृद्धि आहार काप्ररूपणइसके पश्चात् यह वर्णन है-इस जगत् में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर यावत् कर्म निदान से प्रेरित वायुयोनिक जीव अप्काय में आते हैं। वे प्राणी वहाँ अप्काय में आकर अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अकायिक रूप में उत्पन्न होते हैं। वह अप्काय वायुकाय से निर्मित संग्रहीत या धारण किया हुआ होता है। अतः वह (जल) ऊपर का वायु हो तो ऊपर, नीचे का वायु हो तो नीचे और तिरछा वायु हो तो तिरछा जाता है, यथाओस, हिम (बर्फ), महिका (कोहरा या धुंध) ओला, हरतनु और शुद्ध जल। वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त उन त्रस स्थावरयोनिक समुत्पन्न ओस से शुद्धोदकपर्यन्त जलकायिक जीवों के अनेक वर्णादि युक्त शरीर होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकर देव ने कहा है। इसके पश्चात् यह वर्णन है कि इस जगत् में कितने ही प्राणी जल में यावत् अपने पूर्वकृतकर्म के प्रभाव से जलयोनिक जीवों में जलरूप से उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन त्रस स्थावर योनिकों के जलरूप रस का आहार करते हैं। वे पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं, इसके अतिरिक्त उन त्रस स्थावरयोनिक उदकों के अनेक वर्णादि वाले शरीर होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। इसके पश्चात् यह वर्णन है कि-इस जगत् में कितने ही जीव उदकयोनिक उदकों में अपने पूर्वकृत कर्मों के प्रभाव से उदकरूप में जन्म लेते हैं। वे जीव उन उदकयोनिक के रस का आहार करते हैं। वे पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त उन उदकयोनिक उदकों के अनेक वर्णादि वाले शरीर होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। इसके पश्चात् यह वर्णन है कि-इस जगत् में अपने पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से उदकयोनिक उदकों में त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे जीव उन उदकयोनि वाले उदकों के रस का आहार करते हैं। वे पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं, इसके अतिरिक्त उन उदकयोनिक उदकों के शरीर नाना वर्णादि वाले होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। इसके पश्चात् यह वर्णन है कि-इस जगत् में नाना प्रकार की योनि वाले यावत् पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से नाना प्रकार के त्रसस्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीरों में अग्निकाय के रूप में
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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