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________________ ३५४ एवं जाव अहेसत्तमाए उववाएयव्वो । एवं सणकुमार माहिंदाण-बंभलोगस्स य कप्पस्स अंतरा समोह समोहणित्ता पुणरवि जाव अहे सत्तमाए उववायव्वो । एवं बंमलोगस्स तंतगस्स य कप्यस्स अंतरा समोहए समोहणित्ता पुणरवि जाय अहेसत्तमाए उपवाएयव्यो। एवं लंतगरस महासुक्करस य कम्यस्स अंतरा समोहए, समोहणित्ता पुणरवि जाय अहेसत्तमाए उबबाएयव्यो। एवं महासुरस] सहस्सारस्स य कप्पल्स अंतरा समोहए समोहणिता पुणरवि जाय अहे सत्तमाए उदवाएयव्यो । एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयाण य कप्पाणं अंतरा समोह समोहणित्ता पुणरवि जाव अहे सत्तमाए उववायव्वो । एवं आणय पाणवाणं आरण ऽच्चुयाण व कष्याणं अंतरा समोहए समोहणित्ता पुणरवि जाय अहे सत्तमाए उववाएयव्वो । एवं आरणऽच्युयाणं गेबेज्जविमाणाण य अंतरा समोहए समोहणिता पुणरवि जाय अहे सत्तमाए उबचाएयव्यो। एवं गेवेज्जविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य अंतरा समोहए समोहणित्ता पुणरवि जाव अहे सत्तमाए उववाएयव्वो। एवं अणुत्तरविमाणाणं ईसिपब्भाराए य अंतरा समोहए समोहणित्ता पुणरवि जाब अहे सत्तमाए उपवाएपथ्यो । प. आउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता, जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववज्जित्तए - से णं भंते किं पुब्बि उवबज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा, पुव्वि आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! पुव्विं वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा, पुब्धि वा आहारेता पच्छा उवबज्जेज्जा । प से केणट्ठेण भंते ! एवं बुच्चइ "पुव्वि वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा, पुव्विं वा आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा, " उ. गोयमा ! आउकाइयाणं तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा १. वेयणासमुग्धाए, २. कसाय समुग्धाए, ३. मारणंतिय समुग्धाए. मारणंतिय समुग्धाए णं समोहण्णमाणे देसेण वा समोहण्णइ, सव्वेण वा समोहण्णइ, द्रव्यानुयोग - (१) इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार - माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः रत्नप्रभा पृथ्वी से अधः सप्तमपृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः ( रत्नप्रभापृथ्वी से ) अघ सप्तमपृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार लान्तक और महाशुक्रकल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः अधः सप्तमपृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार महाशुक्र और सहस्रार कल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः अधः सप्तमपृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार सहस्रार और आनत-प्राणत कल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः अधः सप्तमपृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार आनत - प्राणत और आरण-अच्युत कल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः अधः सप्तमपृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार आरण-अच्युत और ग्रैवेयक विमानों के अन्तराल मैं मरणसमुद्घात करके पुनः अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार ग्रैवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः अधः सप्तम- पृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। इसी प्रकार अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः अधः सप्तमपृथ्वी पर्यन्त उपपात आदि कहना चाहिए। प्र. भंते! जो अकाधिक जीव इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में अप्कायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य है। तो भंते ! वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! वह पहले उत्पन्न होकर पीछे भी आहार करता है। पहले आहार करके पीछे भी उत्पन्न होता है। प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि " वह पहले उत्पन्न होकर पीछे भी आहार करता है, पहले आहार करके पीछे भी उत्पन्न होता है। " द गौतम ! अकायिकों के तीन समुद्घात कहे गये हैं, २. कषाय समुद्घात, यथा १. वेदना समुद्घात ३. मारणांतिक समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर देश से भी समवहत होता है और सर्व से भी समवहत होता है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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